पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/७७

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जाता और उसकी खाल उधेड़ना शुरू करता। पण्डे लोग भी जुट जाते और वहीं उसका खण्ड खण्ड करके हिस्से बाँट लिये जाते।

मन्दिर में चारो ओर यही बूचड़खाना फैला हुआ था। मेरे पैरों में मानों लोहे की कीलें जकड़ दी गई थी। मैं लगभग ८ या ८॥ बजे मन्दिर में घुसा और एक बजे तक जब तक कि बधिक अपना काम करता रहा, वहीं खड़ा रहा। मेरी पत्नी और साथी लोग हताश होकर एक तरफ हट कर बैठ गये थे। मैंने हिसाब लगा कर देखा कुल मिला कर लगभग बारह सौ बकरे वहाँ मेरे सन्मुख काटे गये और तीन या चार भैंसे। भैसों के सिर काटने, उनके तड़पने, उनके सिर को यूप में फंसाने का दृश्य अत्यन्त भयानक और राक्षसी था आज भी मैं उस दृश्य को याद करके भयभीत हो जाता हूँ। यह अनिवार्य था कि एक ही प्रहार में सिर कट जाय और वह सिर धरती में न गिरने पावे।

मैंने मन्दिर की मूर्ति नहीं देखी। मैंने लौट कर स्नान किया और धर्मशाला से सामान उठा स्टेशन की राह ली। उस पाप पुरी में हम लोग‌ अन्न जल ग्रहण न कर सके।

वहाँ मैने मछलियों के खुले बाज़ार देखे। आंगन की एक ओर शिवाजी का मन्दिर था और दूसरी ओर देवी का। दोनों मन्दिरों की कलशों पर बहुत सी लाल रंग की कत्तरे बंधी थीं। जिनका एक सिरा इस मन्दिर के कलश में और दूसरा दूसरे के कलश में था। देवी के मन्दिर का चबूतरा इतना ऊंचा