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पृष्ठ:नव-निधि.djvu/१०५

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नव-निधि


उन्होंने मातृऋण का विचार करके दस हजार रुपये अपनी मा के नाम जमा कर दिये कि उसके ब्याज से उसका निर्वाह होता रहे ;किन्तु बेटे के इस उत्तम आचरण पर मा का दिल ऐसा टूटा कि वह दिल्ली छोड़कर अयोध्या जा रही तबसे वहीं रहती है। बाबू साहब कभी-कभी मिसेज रामरक्षा से छिपकर उससे मिलने अयोध्या जाया करते थे, किन्तु वह दिल्ली पाने का कभी नाम न लेती।हाँ, यदि कुशल-क्षेम की चिट्ठी पहुँचने में कुछ देर हो जाती, तो विवश होकर समाचार पूछ लेती थी।

उसी महल्ले में एक सेठ गिरधारीलाल रहते थे। उनका लाखों का लेना देन था। वे हीरे और रत्नों का व्यापार करते थे। बाबू रामरक्षा के दूर के नाते में साढू होते थे। पुराने ढंग के आदमी थे-प्रातः काल यमुना-स्नान करनेवाले,गाय को अपने हाथों से झाड़ने-पोछनेवाले, उनसे मिस्टर रामरक्षा का स्वभाव न मिलता था ; परन्तु जब कभी रुपयों की आवश्यकता होती, तो वे सेठ गिरधारीलाल के यहाँ से बे खटके मँगा लिया करते। आपस का मामला था, केवल चार अँगुल के पत्र पर रुपया मिल जाता था, न कोई दस्तावेज़, न स्टाम्प, न साक्षियों की आवश्यकता। मोटरकार के लिए दस हज़ार की आवश्यकता हुई, वह वहाँ से आया। घुड़दौड़ के लिए एक आस्ट्रलियन घोड़ा डेढ़ हजार में लिया, उनके लिए भी रुपया सेठजी के यहाँ से आया। धीरे-धीरे कोई बीस हज़ार का मामला हो गया। सेठजी सरल हृदय के आदमी थे। सपझते थे कि उनके पास दूकानें हैं। बैंकों में रुपया है। जब जी चाहेगा, रुपया वसूल कर लेंगे, किन्तु जब दो-तीन वर्ष व्यतीत हो गये और सेठजी के तकाजों की अपेक्षा मिस्टर रामरक्षा की माँग ही का आधिक्य रहा, तो गिरधारीलाल को सन्देह हुआ। वह एक दिन रामरक्षा के मकान पर आये और सभ्य-भाव से बोले-भाई साहब, मुझे एक हुण्डी का रुपया देना है, यदि आप मेरा हिसाब कर दें तो बहुत अच्छा हो। यह कहकर हिसाब के काग़ज़ात और उनके पत्र दिखलाये। मिस्टर रामरक्षा किसी गार्डनपार्टी में सम्मिलित होने के लिए तैयार थे। बोशे-इस समय दमा कीजिए। फिर देख लूंगा, जल्दी क्या है ?