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ममता


गिरधारीलाल को बाबू साहब की रुखाई पर क्रोध आ गया। वे रुष्ट होकर बोले-आपको जल्दी नहीं है, मुझे तो है ? दो सौ रुपये मासिक की मेरी हानि हो रही है। मिस्टर रामरक्षा ने असन्तोष प्रकट करते हुए घड़ी देखी। पार्टी का समय बहुत करीब था। वे बहुत विनीत भाव से बोले-भाई साहब, मैं बड़ी जल्दी में हूँ। इस समय मेरे ऊपर कृपा कीजिए, मैं कल स्वयं उपस्थित हूँगा।

सेठ जी एक माननीय और धन-सम्पन्न आदमी थे। वे रामरक्षा के इस कुरुचिपूर्ण व्यवहार पर जल गये। में इनका महानन, इनसे धन में, मान में, ऐश्वर्य में बढ़ा हुआ. चाहूँ तो ऐसों को नौकर रख लूँ, इनके दरवाजे पर पाऊँ और आदर-सत्कार की जगह उलटे ऐसा रूखा बर्ताव ? वह हाय बाँधे मेरे सामने न खड़ा रहे, किन्तु क्या मैं पान-इलायची इत्र आदि से भी सम्मान करने के योग्य नहीं ? वे तिनककर बोले-अच्छा, तो कल हिसाब साफ़ हो जाय।

रामरक्षा ने अकड़कर उत्तर दिया-हो जायगा।

रामरक्षा के गौरवशाली हृदय पर सेठजी के इस बर्ताव का प्रभाव कुछ कम खेदजनक न हुआ। इस काठ के कुन्दे ने आज मेरी प्रतिष्ठा धूल में मिला दी। वह मेग अपमान कर गया। अच्छा, तुम भी इसी दिल्ली में रहते हो और हम भी यहीं हैं। निदान दोनों में गाँठ पड़ गई। गबू साहब की तबीयत ऐसी गिरी और हृदय में ऐसी चिन्ता उत्पन्न हुई की पार्टी में जाने का ध्यान जाता रहा। वे देर तक इसी उलझन में पड़े रहे। फिर सूट उतार दिया और सेवक से बोले-जा, मुनीमजी को बुला ला। मुनीमजी आये। उनका हिसाब देखा गया, फिर बैंकों का एकाउण्ट देखा। किन्तु ज्यों-ज्यों इस घाटी में उतरते गये, त्यों-त्यों अंधेरा बढ़ता गया। बहुत कुछ टटोला, कुछ हाथ न आया। अन्त में निराश होकर वे आगम-कुर्मी पर पड़ गये और उन्होंने एक ठण्डी साँस ले ली। दूकानों का माल बिका, किन्तु रुपया बकाया में पड़ा हुआ था। कई ग्राहकों की दुकानें टूट गई है और उन पर जो नकद रुपया बकाया था, वह डूब गया। कलकत्ते के अढ़तियों से जो माल मँगाया था, रुपये चुकाने की तिथि सिर पर आ पहुंची और यहाँ रुपया वसूल न हुआ। दूकानों का यह हाल, बैंकों का इससे भी बुरा। रातभर वे इन्हीं चिन्तामों में करवटें बदलते रहे। अब क्या करना चाहिए। गिरधारीलाल सज्जन पुरुष है। यदि सारा कच्चा हाल उसे सुना दूं तो अवश्य