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ममता


सेठ गिरधारीलाल इस अन्योक्ति-पूर्ण भाषण का हाल सुनकर क्रोध से आग हो गये। मैं बेईमान हूँ ! ब्याज का धन खानेवाला हूँ ! विषयी हूँ ! कुशल हुई, जो तुमने मेरा नाम नहीं लिया। किन्तु अब भी तुम मेरे हाथ में हो, मैं अब भी तुम्हें जिस तरह चाहूँ, नचा सकता हूँ। खुशामदियों ने आग पर तेल डाला। इधर रामरक्षा अपने काम में तत्पर रहे। यहाँ तक कि 'वोटिंग डे' या पहुँचा। मिस्टर रामरक्षा को अपने उद्योग में बहुत कुछ सफलता प्राप्त हुई थी। श्राज उसको जान पड़ेगा कि धन संसार के सब पदार्थों को इकट्ठा नहीं कर सकता। जिस समय फैजुलरहमान के वोट अधिक निकलेंगे और मैं तालियाँ बजाऊँगा, उस समय गिरधारीलाल का चेहरा देखने योग्य होगा। मुंह का रंग बदल जायगा, हवाइयाँ उड़ने लगेंगी, आँखें न मिला सकेगा-शायद फिर मुझे मुंह न दिखा सके। इन्हीं विचारों में मग्न रामरक्षा शाम को टाउन- हाल में पहुँचे। उपस्थित सभ्यों ने बड़ी उमंग के साथ उनका स्वागत किया। थोड़ी देर बाद वोटिङ्ग' प्रारम्भ हुआ। मेम्बरी मिलने की आशा रखनेवाले महानुभाव अपने-अपने भाग्य का अन्तिम फल सुनने के लिए आतुर हो रहे थे। छः बजे चेयरमैन ने फैसला सुनाया। सेठजी की हार हो गई। फैजुल- रहमान ने मैदान मार लिया। रामरक्षा ने हर्ष के आवेग में टोपी हवा में उछाल दी और वे स्वयं भी कई बार उछल पड़े। महल्लेवालों को अचम्भा हुआ। चाँदनी-चौक से सेठजी को हटाना मेरु को स्थान से उखाड़ना था। सेठजी के चेहरे से रामरक्षा को जितनी आशाएँ थीं, वे सब पूरी हो गई। उनका रंग फीका पड़ गया था। वे खेद और लज्जा की मूर्ति बने हुए थे।

एक वकील साहब ने उनसे सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा-सेठजी, मुझे आपकी हार का बहुत बड़ा शोक है। मैं जानता कि यहाँ खुशी के बदले रंज होगा तो कभी यहाँ न पाता। मैं तो केवल आपके ख्याल से यहाँ पाया था। सेठजी ने बहुत रोकना चाहा; परन्तु आँखों में आँसू डबडबा ही अये। वे निःस्पृह बनने का व्यर्थ प्रयत्न करके बोले, "वकील साहब, इसकी मुझे कुछ चिन्ता नहीं। कौन रियासत निकल गई ? व्यर्थ उलझन, चिन्ता तथा झंझट हती थी। चलो, अच्छा हुश्रा, गला छूटा। अपने काम में हर्ज होता था।