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नव-निधि


सेठजी का हृदय कुछ पसीजा। पत्थर की तह में पानी रहता है। किंतु तत्काल ही उन्हें मिसेज़ रामरक्षा के उस पत्र का ध्यान आ गया। वे बोले-- तो मैं न बोलता। आपके कहने से मैं अब भी उनका अपराध क्षमा कर सकता हूँ। परंतु उनकी बीवी साहबा ने जो पत्र मेरे पास भेजा है, उसे देखकर शरीर में आग लग जाती है। दिखाऊँ आपको ?

रामरक्षा की माँ ने पत्र लेकर पढ़ा तो उनकी आँखों में आँसू भर आये। वे बोलीं-बेटा, उस स्त्री ने मुझे बहुत दुःख दिया है। उसने मुझे देश से निकाल दिया। उसका मिजाज और ज़बान उसके वश में नहीं। किन्तु इस समय उसने जो गर्व दिखाया है. उसका तुम्हें ख्याल नहीं करना चाहिए। तुम इसे भुला दो। तुम्हारा देश-देश में नाम है। यह नेकी तुम्हारे नाम को और भी फैला देगी। मैं तुमसे प्रण करती हूँ कि सारा समाचार रामरक्षा से लिखवाकर किसी अच्छे समाचार-पत्र में छपवा दूंँगी। रामरक्षा मेरा कहना नहीं टालेगा। तुम्हारे इस उपकार को वह कभी न भूलेगा। जिस समय ये समाचार संवादपत्रों में छपेंगे उस समय हजारों मनुष्यों को तुम्हारे दर्शन की अभिलाषा होगी। सरकार में तुम्हारी बड़ाई होगी और मैं सच्चे हृदय से कहती हूँ कि शीघ्र ही तुम्हें कोई न कोई पदवी मिल जायगी। रामरक्षा की अँगरेजों से बहुत मित्रता है, वे उसकी बात कभी न टालेंगे।

सेठजी के हृदय में गुदगुदी पैदा हो गई। यदि इस व्यवहार से वह पवित्र और माननीय स्थान प्राप्त हो जाय, जिसके लिए हजारों खर्च किये, हजारों गालियाँ मिली, हजारों अनुनय-विनय की, हजारों खुशामदें की, खानसामों की झिड़कियाँ सही, बँगलों के चक्कर लगाये ! अहा, इस सफलता के लिए ऐसे कई हज़ार मैं खर्च कर सकता हूँ। निस्संदेह मुझे इस काम में रामरक्षा से बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। किन्तु इन विचारों को प्रकट करने से क्या लाभ ? उन्होंने कहा, "माता, मुझे नाम-नमूद की बहुत चाह नहीं है। बड़ों ने कहा है. 'नेकी कर और दरिया में डाल।' मुझे तो आपकी बात का ख्याल है। पदवी मिले तो लेने से इन्कार नहीं, न मिले तो उसकी तृष्णा भी नहीं। परन्तु यह तो बताइए कि मेरे रुपयों का क्या प्रबन्ध होगा। आपको मालूम होगा कि मेरे दस हज़ार रुपये जाते हैं।"