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पृष्ठ:नव-निधि.djvu/१२३

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नव-निधि

कुँवर साहब (ऐंठकर)––रुपया पीछे लेंगे, पहले देखेंगे, कि तुम्हारी इज्ज़त कितनी है।

चाँदपार के किसान अपने गाँव पर पहुँचकर पण्डित दुर्गानाथ से अपनी रामकहानी कह ही रहे थे कि कुँबर साहब का दुत पहुँचा और ख़बर दी कि सरकार ने आपको अभी-अभी बुलाया है।

दुर्गानाथ ने असामियों को परितोष दिया और आप घोड़े पर सवार होकर दरबार में हाज़िर हुए।

कुँवर साहब की आँखें लाल थीं। मुख की प्राकृति भयंकर हो रही थी। कई मुख्तार और चपरासी बैठे हुए आग पर तेल डाल रहे थे। पण्डितजी को देखते ही कुँवर साहब बोले-चाँदपारवालों की हरकत आपने देखी ?

पण्डितबी ने नम्र भाव से कहा-जी हाँ, सुनकर बहुत शोक हुआ। ये तो ऐसे सरकश न थे।

कुँवर साहब-यह सब आप ही के आगमन का फल है। आप अभी स्कूल के लड़के हैं। आप क्या जानें कि संसार में कैसे रहना होता है। यदि आपका बर्ताव असामियों के साथ ऐसा ही रहा तो फिर मैं ज़मींदारी कर चुका। यह सब आपकी करनी है। मैंने इसी दरवाज़े पर असामियों को बाँध बाँधकर उलटे लटका दिया है और किसी ने चूँ तक न की। श्राज उनका यह साहस कि मेरे ही श्रादमी पर हाथ चलायें !

दुर्गानाथ (कुछ दबते हुए)-महाशय, इसमें मेरा क्या अपराध ? मैंने तो जबसे सुना है तभी से स्वयं सोच में पड़ा हूँ।

कुँवर साहब-आपका अपराध नहीं तो किसका है? आप ही ने तो इनको सर चढ़ाया। बेगार बंद कर दी, आप ही उनके साथ भाईचारे का बर्ताव करते है, उनके साथ हँसी-मज़ाक करते हैं। ये छोटे आदमी इस बर्ताव की कदर क्या जानें, किताबी बातें स्कूलों ही के लिए हैं। दुनिया के व्यवहार का कानून दुसरा‌ है। अच्छा, जो हुआ सो हुआ। अब मैं चाहता हूँ कि इन बदमाशों को इस सरकशी का मज़ा चखाया जाय। असामियों को आपने मालगुजारी की रसीदें तो नहीं दी हैं?