पृष्ठ:नव-निधि.djvu/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
११७
पछतावा


दुर्गानाथ ( कुछ डरते हुए)-जी नहीं, रसीदें तैयार है, केवल आपके हस्ताक्षरों की देर है ?

कुँवर साहब ( कुछ संतुष्ट होकर)-यह बहुत अच्छा हुआ। शकुन अच्छे हैं। अब आप इन रसीदों को चिराग़अली के सिपुर्द कीजिए। इन लोगों पर बकाया लगान की नालिश की जायगी, फ़सल नीलाम करा लूँगा। जब भूखे मरेंगे तब सूझेगी। जो रुपया अब तक वसूल हो चुका है, वह बीज और ऋण के खाते में चढ़ा लीजिए। आपको केवल यह गवाही देनी होगी कि यह रूपया मालगुजारी के मद में नहीं, कर्ज के मद में वसूल हुआ है। बस!

दुर्गानाथ चिन्तित हो गये। सोचने लगे कि क्या यहाँ भी उसी आपत्ति का सामना करना पड़ेगा जिससे बचने के लिए इतने सोच-विचार के बाद, इस शान्ति-कुटीर को ग्रहण किया था ? क्या जान-बूझकर इन गरीबों की गर्दन पर छुरी फेरूँ, इसलिए कि मेरी नौकरी बनी रहे ? नहीं, यह मुझसे न होगा। बोले-क्या मेरी शहादत बिना काम न चलेगा ?

कुँवर साहब ( क्रोध से)-क्या इतना कहने में भी आपको कोई उज्र है ? दुर्गानाथ (द्विविधा में पड़े हुए )-जी, यों तो मैंने आपका नमक खाया है। आपको प्रत्येक आज्ञा का पालन करना मुझे उचित है, किन्तु न्यायालय में मैंने गवाही नहीं दी है। संभव है कि यह कार्य मुझसे न हो सके अतः मुझे तो क्षमा ही कर दिया जाय।

कँवर साहब (शासन के ढंग से)-यह काम आपको करना पड़ेगा, इसमें 'हाँ-नहीं की कोई आवश्यकता नहीं। आग अपने लगाई है, बुझा- येगा कौन?

दुर्गानाथ ( दृढ़ता के साथ)-मैं झूठ कदापि नहीं बोल सकता, और न इस प्रकार शहादत दे सकता हूँ।

कुँवर साहब ( कोमल शब्दों में )-कृपानिधान, यह झूठ नहीं है। मैंने झूठ का व्यापार नहीं किया है। मैं यह नहीं कहता कि आप रुपये का वसूल होना अस्वीकार कर दीजिए। जब असामी मेरे ऋणी हैं, तो मुझे अधिकार है कि चाहे रुपया ऋण की मद में वसूल करूँ या मालगुजारी की मद में। यदि इतनी-सी बात को आप झूठ समझते हैं तो आपकी ज़बरदस्ती है। अभी आपने