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नव-निधि

भय ने लोगों के मन को उछालकर मुँह तक पहुँचा दिया। कालदेव और कादिर खाँ दोनों लँगोटा कसे शेरों की तरह अखाड़े में उतरे और गले मिल गये। तब दोनों तरफ से तलवारें निकली और दोनों के बगलों में चली गई। फिर बादल के दो टुकड़ों से बिजलियाँ निकलने लगी। पूरे तीन घण्टे तक यही मालूम होता रहा कि दो अँगारे हैं। हजारों आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदान में आधी रात का-सा सन्नाटा छाया था। हाँ,जब कभी कालदेव कोई गिरहदार हाथ चलाता या कोई पैचदार वार बचा जाता,तो लोगों की गर्दन आप ही आप उठ जाती,पर किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़े के अन्दर तलवारों को खींच-तान थी;पर देखनेवालों के लिए अखाड़े से बाहर मैदान में इसमें भी बढ़कर तमाशा था। बार-बार जातीय प्रतिष्ठा के विचार से मन के भावों को रोकना और प्रसन्नता या दुःख का शब्द मुँह से बाहर न निकलने देना तलवारों के वार बचाने से अधिक कठिन काम था। एकाएक क़ादिरखाँ 'अल्लाहो-अकबर' चिल्लाया, मानों बादल गरज उठा और उसके गरजते ही कालदेव के सिर पर बिजली गिर पड़ी।

कालदेव के गिरते ही बुन्देलों को सब न रहा। हर एक चेहरे पर निर्बल क्रोध और कुचले हुए घमण्ड की तसवीर खिंच गई। हजारों आदमी जोश में आकर अखाड़े पर दौड़े,पर हरदौल ने कहा-ख़बरदार! अब कोई आगे न बढे। इस आवाज ने पैरों के साथ जंजीर का काम किया। दर्शकों को रोककर जब वे अखाड़े में गये और कालदेव को देखा,तो आँखों में आँसू भर आये। जख्मी शेर जमीन पर पड़ा तड़प रहा था। उसके जीवन की तरह उसकी तलवार के दो टुकड़े हो गये थे।

आज का दिन बीता, रात आई। पर बुन्देलों की आँखों में नींद कहाँ। लोगों ने करवटें बदलकर रात काटी। जैसे दुःखित मनुष्य विकलता से सुबह की बाट जोहता है, उसी तरह बुन्देले रह-रहकर आकाश की तरफ़ देखते और उसकी धीमी चाल पर अमलाते थे। उनके नातीय घमण्ड पर गहरा घाव लगा था। दूसरे दिन ज्योंही सूर्य निकला, तीन लाख बुन्देले तालाब के किनारे पहुँचे। जिस समय भालदेव शेर की तरह अखाड़े की तरफ़ चला,दिलों में धड़ कन-सी होने लगी। कल जब कालदेव अखाड़े में उतरा था, बुन्देलों के हौसले