बढ़े हुए थे, पर आज वह बात न थी। हृदय में आशा की जगह डर घुसा हुआ था। जब क़ादिरखाँ कोई चुटीला वार करता तो लोगों के दिल उछल कर होठों तक आ जाते। सूर्य सिर पर चढ़ा आता था और लोगों के दिल बैठ जाते थे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मालदेव अपने भाई से फुर्तीला और तेज़ था। उसने कई बार क़ादिरखाँ को नीचा दिखलाया, पर दिल्ली का निपुण पहलवान हर बार सँभल जाता था। पूरे तीन घण्टे तक दोनों बहादुरों में तलवारें चलती रहीं। एकाएक खट्टाके की आवाज़ हुई और भालदेव की तलवार के दो टुकड़े हो गये। राजा हरदौल अखाड़े के सामने खड़े थे। उन्होंने भालदेव की तरफ़ तेज़ी सेअपनी तलवार फेंकी। भालदेव तलवार लेने के लिए झुका ही था। कि क़ादिरखाँ की तलवार उसकी गर्दन पर आ पड़ी। घाव गहरान था, केवल एक 'चरका' था, पर उसने लड़ाई का फैसला कर दिया।
हताश बुन्देले अपने अपने घरों को लौटे। यद्यपि भालदेव अब भी लड़ने को तैयार था, पर हरदौल ने समझाकर कहा कि, "भाइयो, हमारी हार उसी समय हो गई, जब हमारी तलवार ने जवाब दे दिया। यदि हम क़ादिरखाँ की जगह होते तो निहत्थे आदमी पर वार न करते और जब तक हमारे शत्रु के हाथ में तलवार न आ जाती, हम उस पर हाथ न उठाते; पर क़ादिरखाँ में यह उदारता कहाँ? बलवान् शत्रु का सामना करने में उदारता को ताक पर रख देना पड़ता है। तो भी हमने दिखा दिया है कि तलवार की लड़ाई में हम उसके बराबर हैं और अब हमको यह दिखाना रहा है कि हमारी तलवार में भी वैसा ही ज़ौहर है।" इसी तरह लोगों को तसल्ली देकर राजा हरदौल रनवास को गये।
कुलीना ने पूछा––लाला, आज दंगल का क्या रंग रहा?
हरदौल ने सिर झुकाकर जवाब दिया––आज भी वही कल का-सा हाल रहा।
कुलीना––क्या भालदेव मारा गया?
हरदौल––नहीं, जान से तो नहीं, पर हार हो गई।
कुलीना––तो अब क्या करना होगा?
हरदौल––मैं स्वयं इसी सोच में हूँ। आज तक ओरछे को कभी नीचा न