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राम हरदौल

हरदौल को इन बातों की कुछ भी ख़बर न थी। आधी रात को एक दासी रोती हुई उसके पास गई और उसने उससे सब समाचार अक्षर-अक्षर कह सुनाया। वह दासी पान दान लेकर रानी के पीछे-पीछे राजमहल से दरवाज़े तक गई थी और सब बातें सुनकर आई थी। हरदौल राजा का ढंग देखकर पहले ही ताड़ गया था कि राजा के मन में कोई न कोई काँटा अवश्य खटक रहा है। दासी की बातों ने उसके सन्देह को और भी पक्का कर दिया। उसने दासी से कड़ी मनाही कर दी कि सावधान ! किसी दूसरे के कानों में इन बातों की भनक न पढ़े और वह स्वयं मरने को तैयार हो गया।

हरदोल बुन्देलों की वीरता का सूरज था। उसके भौहों के तनिक इशारे से तीन लाख बुन्देले मरने और मारने के लिए इकट्ठे हो सकते थे। ओरछा उस पर न्यौछावर था। यदि जुझारसिंह खुले मैदान उसका सामना करते, तो अवश्य मुंह की खाते। क्योंकि हरदौल भी बुन्देला था और बुन्देले अपने शत्रु के साथ किसी प्रकार की मुँहदेखी नहीं करते, मरना-मारना उनके जीवन का एक अच्छा दिल बहलाव है। उन्हें सदा इसकी लालसा रहती है कि कोई हमें चुनौती दे, कोई हमें छेड़े। उन्हें सदा खून की प्यास रहती है और वह प्यास कभी नहीं बुझती। परन्तु उस समय एक स्त्री को उसके खून की ज़रूरत थी और उसका साहस उसके कानों में कहता था कि एक निर्दोष और सती अमला के लिए अपने शरीर का खून देने में मुँह न मोड़ो। यदि भैया को यह सन्देह होता कि मैं उनके खून का प्यासा हूँ और उन्हें मारकर राज पर अधिकार करना चाहता हूँ, तो कुछ हर्ज न था। राज्य के लिए कत्ल और खून, दगा और फरेब सत्र उचित समझा गया है। परन्तु उनके इस सन्देह का निपटारा मेरे मरने के सिवा और किसी तरह नहीं हो सकता। इस समय मेग धर्म है कि अपना प्राण देकर उनके इस सन्देह को दूर कर दें। उनके मन में यह दुखानेवाला सन्देह उत्पन्न करके भी यदि मैं नीता ही रहूँ और अपने मन की पवित्रता बनाऊँ तो मेरी ढिठाई है। नहीं, इस भले काम में अधिक आगा-पीछा करना अच्छा नहीं। मैं खुशी से विष का बीड़ा खाउँगा। इससे बढ़कर शूरवीर की मृत्यु और क्या हो सकती है।