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रानी सारन्धा


सारन्धा -- आपको मदद करनी होगी।

चम्पतराय -- उनकी मदद करना दारा शिकोह से वैर लेना है।

सारन्धा -- यह सत्य है; परन्तु हाथ फैलाने की मर्यादा भी तो निभानी चाहिए।

चम्पतराय -- प्रिये, तुमने सोचकर जवाब नहीं दिया।

सारन्धा -- प्राणनाथ, मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि यह मार्ग कठिन है। और अब हमें अपने योद्धाओं का रक्त पानी के समान बहाना पड़ेगा; परन्तु हम अपना रक्त बहायेंगे, और चम्बल की लहरों को लाल कर देंगे। विश्वास रखिए कि जब तक नदी की धारा बहती रहेगी, वह हमारे वीरों का कीर्तिगान करती रहेगी। जब तक बुँदेलों का एक भी नामलेवा रहेगा, ये रक्त-विन्दु उसके माथे पर केशर का तिलक बनकर चमकेंगे।

वायुमण्डल में मेघराज की सेनाएँ उमड़ रही थीं। ओरछे के किले से बुँदेलों की एक काली घटा उठी और वेग के साथ चम्बल की तरफ़ चली। प्रत्येक सिपाही वीर-रस से झूम रहा था। सारन्धा ने दोनों रामकुमारों को गले से लगा लिया और राजा को पान का बीड़ा देकर कहा -- बुँदेलों की लाज अब तुम्हारे हाथ है।

आज उसका एक-एक अंग मुस्करा रहा है और हृदय हुलसित है। बँदेलों की यह सेना देखकर शाहज़ादे फूले न समाये। राजा वहाँ की अंगुल अंगुल भूमि से परिचित थे। उन्होंने बुँदेलों को तो एक आड़ में छिपा दिया और वे शाहज़ादों की फ़ौज को सजाकर नदी के किनारे-किनारे पच्छिम की ओर चले। दारा शिकोह को भ्रम हुआ कि शत्रु किसी अन्य घाट से नदी उतरना चाहता है। उन्होंने घाट पर से मोर्चे हटा लिये। घाट में बैठे हुए बुँदेले इसी ताक में थे। बाहर निकल पड़े और उन्होंने तुरन्त ही नदी में घोड़े डाल दिये। चम्पतराय ने शाहज़ादा दारा शिकोह को भुलावा देकर अपनी फ़ौज घुमा दी और वह बुँदेलों के पीछे चलता हुआ उसे पार उतार लाया। इस कठिन चाल में सात घण्टों का विलम्ब हुआ; परन्तु जाकर देखा तो सात सौ बुँदेलों की लाशें तड़प रही थीं।

राजा को देखते ही बुँदेलों की हिम्मत बँध गई। शाहज़ादों की सेना ने