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नव-निधि

यह वह समय था जब चित्तौड़ में मृदुभाषिणी मीरा प्यासी आत्माओं को ईश्वर-प्रेम के प्याले पिलाती थी। रणछोड़जी के मन्दिर में जब भक्ति से विह्वल होकर वह अपने मधुर स्वरों में अपने पियूष-पूरित पदों को गाती, तो श्रोतागण प्रेमानुराग से उन्मत्त हो जाते। प्रतिदिन यह स्वर्गीय आनन्द उठाने के लिए सारे चित्तौड़ के लोग ऐसे उत्सुक होकर दौड़ते, जैसे दिन-भर की प्यासी गायें दूर से किसी सरोवर को देखकर उसकी ओर दौड़ती है। इस प्रेम-सुधा-सागर से केवल चित्तौड़वासियों ही कि तृप्ति न होती थी, बल्कि समस्त राजपूताना की मरूभूमि प्लावित हो जाती थी।

एक बार ऐसा संयोग हुश्रा कि झालावाड़ के रावसाहन और मन्दार राज्य के कुमार दोनों ही लाव-लश्कर के साथ चित्तौड़ आये। रायसाहब के साथ राज-कुमारी प्रभा भी थी, जिसके रूप और गुण की दूर तक चर्चा थी। यहीं रण-छोड़नी के मन्दिर में दोनों की आँखें मिलीं। प्रेम ने बाण चलाया।

राजकुमार सारे दिन उदासीन भाव से शहर की गलियों में घूमा करता। राजकुमारी विरह से व्यथित अपने महल के झरोखों से झाँका करती। दोनों व्याकुल होकर सन्ध्या समय मन्दिर में आते और यहाँ चन्द्र को देखकर कुमुदिनी खिल जाती।

प्रेम-प्रवीण मीरा ने कई बार इन दोनों प्रेमियों को सतृष्ण नेत्रों से परस्पर देखते हुए पाकर उनके मन के भावों को ताड़ लिया। एक दिन कीर्त्तन के पश्चात् जब झालावाड़ के रावसाहब चलने लगे तो उसने मन्दार के राजकुमार को बुलाकर उसके सामने खड़ा कर दिया और कहा –- रावसाहब, मैं प्रभा के लिए यह वर लाई हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिए।

प्रभा लज्जा से गड़-सी गई। राजकुमार के गुण-शील पर रावसाहब पहले ही से मोहित हो रहे थे, उन्होंने तुरन्त उसे छाती से लगा लिया।

उसी अवसर पर चित्तौड़ के राणा भोजराज भी मन्दिर में आये। उन्होंने प्रभा का मुख चन्द्र देखा। उनकी छाती पर साँप लोटने लगा।