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पाप का अग्निकुण्ड


गई, तो देखा कि व्रजविलासिनी हरी-हरी घास पर लेटी हुई है और उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं। राजकुमारियों के अच्छे बर्ताव और स्नेहपूर्ण बात-चीत से उसकी सुन्दरता कुछ चमक गई थी। इनके साथ अब वह भी राजकुमारी जान पड़ती थी। पर इन सब बातों के रहते भी वह बेचारी बहुधा एकान्त में बैठकर रोया करती। उसके दिल पर एक ऐसी चोट थी कि वह उसे दम भर भी चैन नहीं लेने देती थी। राजकुमारियाँ उस समय उसे रोती देखकर बड़ी सहानुभूति के साथ उसके पास बैठ गई। राजनन्दिनी ने उसका सिर अपनी जाँघ पर रख लिया और उसके गुलाब से गालो को थपथगकर कहा-सखी, तुम अपने दिल का हाल हमें न बताओगी ? क्या अब भी हम गैर हैं! तुम्हारा यो अकेले दुःख की आग में जलना हमसे नहीं देखा जाता। व्रजविलासिनी आवाज़ सम्हालकर बोली-बहिन, मैं अभागिनी हूँ। मेरा हाल मत सुनो।

राज०-अगर बुरा न मानो तो एक बात पूछ्।

ब्रज- क्या, कहो।

गज०-वही जो मैंने पहले दिन पूछा था,तुम्हारा व्याह हुआ है कि नहीं ?

ब्रज०-इसका जवाब मैं क्या दूँ ? अभी नहीं हुआ।

राज०- क्या किसी का प्रेम का बाण हृदय में चुभा हुआ है?

व्रज०-नहीं बहिन, ईश्वर जानता है।

गम०-तो इतनी उदास क्यों रहती हो? क्या प्रेम का आनन्द उठाने को जी चाहता है।

ब्रज-नहीं, दुःख के सिवा मन में प्रेम को स्थान ही नहीं।

राज०-म प्रेम का स्थान पैदा कर देंगी।

वजविलासिनी इशारा समझ गई और बोली-बहिन, इन बातों की चर्चा न करो।

राज०-मैं अब तुम्हारा ब्याह रचाऊँगा ? दीवान जयचन्द को तुमने देखा है ?

ब्रजविलासिनी आँसू भरकर बोली-राजकुमारी ; मैं व्रतधारिणी हूँ और अपने व्रत को पूरा करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। प्रण को निभाने के लिए मैं जीती हूँ, नहीं तो मैंने ऐसी आफ़त झेली हैं कि जीने की इच्छा अब नहीं