जुगुनू की चमक
पंजाब के सिंह राजा रणजीतसिंह संसार से चल चुके थे और राज्य के वे प्रतिष्ठित पुरुष जिनके द्वारा उसका उत्तम प्रबन्ध चल रहा था, परस्पर के द्वोष और अनबन के कारण मर मिटे थे। राजा रणजीतसिंह का बनाया हश्रा सुन्दर किन्तु खोखला भवन अब नष्ट हो चुका था। कुँवर दिलीपसिंह अब इंग्लैंड में थे और रानी चन्द्रकुँवरि चुनार के दुर्ग में। रानीचन्द्रकुँवरि ने विनष्ट होते हुए राज्य को बहुत सँभालना चाहा, किन्तु शासन-प्रणाली न जानती थी और कूट-नीति ईर्ष्या की आग भड़काने के सिवा और क्या करती ?
रात के बारह बज चुके थे। रानी चन्द्रकुँवरि अपने निवास भवन के ऊपर छत पर खड़ी गंगा की ओर देख रही थी और सोचती थी-लहरें क्यों इस प्रकार स्वतन्त्र हैं। उन्होंने कितने गाँव और नगर डुबाये हैं, कितने जीव-जन्तु तथा द्रव्य निगल गई हैं; किन्तु फिर भी वे स्वतन्त्र हैं। कोई उन्हें बन्द नहीं करता। इसीलिए न कि वे बन्द नहीं रह सकती ! वे गरजेंगी, बल खायेगी-और बाँध के ऊपर चढ़कर उसे नष्ट कर देंगी, अपने ज़ोर से उसे बहा ले जायेंगी।
यह सोचते-विचारते रानी गादो पर लेट गई । उसकी आँखों के सामने पूर्वावस्था की स्मृतियाँ मनोहर स्वप्न की भाँति आने लगीं। कभी उसकी भौंह की मरोड़ तलवार से भी अधिक तीव्र थी और उसकी मुसकराहट वसन्त की सुगन्धित समीर से भी अधिक प्राण-पोषक; किन्तु हाय, अब इनकी शक्ति हीनावस्था को पहुँच गई। रोवे तो अपने को सुनाने के लिए, हँसे तो अपने को बहलाने के लिए। यदि बिगड़े तो किसी का क्या बिगाड़ सकती है और प्रसन्न हो तो किसी का क्या बना सकती है ? रानी और बाँदी में कितना अन्तर है ? रानी की आँखों से आँसू की बूंदे झरने लगी, बो कभी विष से अधिक प्राण-नाशक और अमृत से अधिक अनमोल थीं। वह इसी भाँति अकेली, निराश, कितनी बार रोई, जब कि आकाश के तारों के सिवा और कोई देखनेवाला न था।