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इसी प्रकार रोते-रोते रानी की आँखें लग गई। उसका प्यारा, कलेजे का टुकड़ा कुँवर दिलीपसिंह, जिसमें उसके प्राण बसते थे, उदास मुख आकर खड़ा हो गया। जैसे गाय दिन-भर जंगलों में रहने के पश्चात् सन्ध्या को घर आती है और अपने बछड़े को देखते ही प्रेम और उमंग से मतवाली होकर स्तनों में दूध भरे, पूँछ उठाये, दौड़ती है, उसी भाँति चन्द्रकुँवरि अपने दोनों हाथ फैलाये अपने प्यारे कुँवर को छाती से लपटाने के लिए दौड़ी। परन्तु ऑखें खुल गई और जीवन की आशाओं की भाँति वह स्वप्न विनष्ट हो गया। रानी ने गंगा की ओर देखा, और कहा -- मुझे भी अपने साथ लेती चलो। इसके बाद गनी तुरन्त छत से उतरी। कमरे में एक लालटेन जल रही थी। उसके उजेले में उसने एक मैली साड़ी पहनी, गहने उतार दिये, रत्नों के एक छोटे-से बक्स को और एक तीव्र कटार को कमर में रखा। जिस समय वह बाहर निकली, नैराश्य-पूर्ण साहस की मूर्ति थी।
सन्तरी ने पुकाग । रानी ने उत्तर दिया -- मैं हूँ झंगी।
'कहाँ जाती है?'
'गंगाजल लाऊँगी। सुराही टूट गई है, रानीजी पानी माँग रही हैं ।'
सन्तरी कुछ समीप आकर बोला -- चल, मैं भी तेरे साथ चलता हूँ, जरा रुक जा।
झंगी बोली -- मेरे साथ मत आयो। रानी कोठे पर हैं। देख लेंगी।
मन्तरी को धोखा देकर चन्द्रकुँवरि गुप्त द्वार से होती हुई अन्धेरे में काँटों से उलझती, चट्टानों से टकराती, गंगा के किनारे जा पहुँची।
रात आधी से अधिक जा चुकी थी। गंगाजी में संतोषप्रदायिनीं शान्ति विराज रही थी। तरेंगे तारों को गोद में लिये सो रही थीं। चारों ओर सन्नाटा था।
रानी नदी के किनारे-किनारे चली जाती थी और मुड़-मुड़कर पीछे देखती थी। एकाएक एक डोंगी खूँटे से बँधी हुई देख पड़ी। रानी ने उसे ध्यान से देखा तो मल्लाह सोया हुआ था। उसे जगाना काल को जगाना था। वह तुरन्त रस्सी खोलकर नाव पर सवार हो गई। नाव धीरे-धीरे धार के सहारे चलने