ऊपर लेता हूँ। दरबार अपने को इस विषय में निर्दोष समझे और इसकी सर्व-साधारण में घोषणा कर दे।
कड़बड़ खत्री गर्म होकर बोले-केवल यह घोषणा देश को भय से रक्षित नहीं कर सकती।
राणा जंगबहादुर ने क्रोध से ओठ चबा लिया, किन्तु सँभलकर कहा- देश का शामन भार अपने ऊपर लेनेवालों की ऐसी अवस्थाएँ अनिवार्य हैं। हम उन नियमों से, जिन्हें पालन करना हमारा कर्तव्य है, मुह नहीं मोड़ सकते। अपनी शरण में आये हुओं का हाथ पकड़ना-उनकी रक्षा करना राजपूतों का धर्म है। हमारे पूर्व पुरुष सदा इस नियम पर-धर्म पर प्राण देने को उद्यत रहते थे। अपने माने हुए धर्म को तोड़ना एक स्वतंत्र जाति के लिए लज्जास्पद है। अंगरेज हमारे भित्र हैं और अत्यन्त हर्ष का विषय है कि बुद्धिशाली मित्र हैं। महारानी चंद्रकुँवरि को अपनी दृष्टि में रखने से उनका उद्देश्य केवल यह था कि उपद्रवी लोगों के गिरोह का कोई केन्द्र शेष न रहे। यदि उनका यह उद्देश्य भंग न होतो, हमारी ओर से शंका होने का न उन्हें कोई अवसर है और न हमें उनसे लज्जित होने की कोई आवश्यकता।
कड़बड़-महारानी चन्द्रकुँवरि यहाँ किस प्रयोजन से आई हैं ?
राणा जंगबहादुर-केवल एक शान्ति-प्रिय सुख स्थान की खोज में, जहाँ उन्हें अपनी दुरवस्था की चिन्ता से मुक्त होने का अवसर मिले। वह ऐश्वर्यशाली गनी जो रंगमहलों में सुख विलास करती थी, जिसे फूलों की सेज पर भी चैन न मिलता था-आज सैकड़ों कोस से अनेक प्रकार के कष्ट सहन करती, नदी-नाले,पहाड़ जंगल छानती यहाँ केवल एक रक्षित स्थान की खोन में आई है। उमड़ी हुई नदियाँ और उबलते हुए नाले, बरसात के दिन। इन दुःखों को आप लोग जानते हैं। और यह सब उसी एक रक्षित स्थान के लिए-उसी एक भूमि के टुकड़े की आशा में। किन्तु हम ऐसे स्थान-हीन हैं कि उनकी यह अभिलाषा भी पूरी नहीं कर सकते। उचित तो यह था कि उतनी सी भूमि के बदले हम अपना हृदय फैला देते। सोचिए, कितने अभिमान की बात है कि एक आपदा में फंसी हुई रानी अपने दुःख के दिनों में जिस देश को याद करती है यह वही पवित्र देश है। महारानी चॅद्रकुँवरि को हमारे इस अभयप्रद स्थान पर-हमारी शरणा-