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पृष्ठ:नव-निधि.djvu/८१

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नव-निधि


गतों की रक्षा पर पूरा भरोसा था और वही विश्वास उन्हें यहाँ तक लाया है। इसी आशा पर कि पशुपतिनाथ की शरण में मुझको शान्ति मिलेगी, वह यहाँ तक आई हैं। आपको अधिकार है चाहे उनकी आशा पूर्ण करें या उसे धूल में मिला दें। चाहे रक्षणता के--शरणागतों के साथ सदाचरण के--नियमों को निभाकर इतिहास के पृष्ठों पर अपना नाम छोड़ जायँ, या जातीयता तथा सदाचार-सम्बन्धी नियमों को मिटाकर स्वयं अपने को पतित समझें। मुझे विश्वास नहीं है कि यहाँ एक भी मनुष्य ऐसा निरभिमान है कि जो इस अवसर पर शरणागत-पालन धर्म को विस्मृत करके अपना सिर ऊँचा कर सके। अब मैं आपके अन्तिम निपटारे की प्रतीक्षा करता हूँ। कहिए, आप अपनी जाति और देश का नाम उज्ज्वल करेंगे या सर्वदा के लिए अपने माथे पर अपयश का टीका लगायँगे ?

राजकुमार ने उमंग से कहा--हम महारानी के चरणों तले आँखें बिछायेंगे।

कप्तान विकमसिंह बोले--हम राजपूत है और अपने धर्म का निर्वाह करेंगे।

जनरल वनवीरसिंह--हम उनको ऐसी धूमधाम से लायँगे कि संसार चकित हो जायगा।

राणा जंगबहादुर ने कहा--मैं अपने मित्र कड़बड़ खत्री के मुख से उनका फैसला सुनना चाहता हूँ।

कड़बड़ खत्री एक प्रभावशाली पुरुष थे, और मंत्रिमण्डल में वे राणा जंगबहादुर की विरुद्ध मण्डली के प्रधान थे। वे लज्जा भरे शब्दों में बोले--यद्यपि मैं महारानी के आगमन को भयरहित नहीं समझता, किन्तु इस अवसर पर हमारा धर्म यही है कि हम महारानी को आश्रय दें। धर्म से मुँह मोड़ना किसी जाति के लिए मान का कारण नहीं हो सकता।

कई ध्वनियों ने उमंग भरे शब्दों में इस प्रसंग का समर्थन किया।

महाराज सुरेन्द्रविक्रमसिंह के इस निपटारे पर बधाई देता हूँ। तुमने जाति का नाम रख लिया। पशुपति इस उत्तम कार्य में तुम्हारी सहायता करें।

सभा विसर्जित हुई। दुर्ग से तोपें छूटने लगीं। नगर भर में खबर गूँज उठी कि पंजाब की महारानी चन्द्रकुँवरि का शुभागमन हुआ है। जनरल रणवीरसिंह और जनरल समरधीरसिंह बहादुर ५०००० सेना के साथ महारानी की अगवानी के लिए चले।