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पृष्ठ:नव-निधि.djvu/८५

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नव-निधि

उसपर भी गीत का जादू असर कर रहा था। वह बोली -- निःसन्देह ऐसा राग मैंने आप तक नहीं सुना, खिड़की खोलकर बुलाती हूँ।

थोड़ी देर में रागिया भीतर आया। सुन्दर सजीले बदन का नौजवान था। नंगे पैर, नंगे सिर, कन्धे पर एक मृगचर्म, शरीर पर एक गेरूआ वस्त्र, हाथों में एक सितार। मुखारविन्द से तेज छिटक रहा था। उसने दबी हुई दृष्टि से दोनों कोमलाँगी रमणियों को देखा और सिर झुकाकर बैठ गया।

प्रभा ने झिझकती हुई आँखों से देखा और दृष्टि नीची कर ली। उमा ने कहा -- योगीजी, हमारे बड़े भाग्य थे कि आपके दर्शन हुए, हमको भी कोई पद सुनाकर कृतार्थ कीजिए।

योगी ने सिर झुकाकर उत्तर दिया -- हम योगी लोग नारायण का भजन करते हैं। ऐसे-ऐसे दरबारों में हम भला क्या गा सकते हैं, पर आपकी इच्छा है तो सुनिए --

कर गये थोड़े दिन की प्रीति।

कहाँ वह प्रीति कहाँ यह बिछुरन, कहां मधुवन की रीति,

कर गये थोड़े दिन की प्रीति।

योगी का रसीला करुण स्वर, सितार का सुमधुर निनाद, उसपर गीत का माधुर्य, प्रभा को बेसुध किये देता था। इसका रसज्ञ स्वभाव और उसका मधुर रसीला गाना, अपूर्व संयोग था। जिस भाँति सितार की ध्वनि गगनमण्डल में प्रतिध्वनित हो रही थी, उसी भाँति प्रभा के हृदय में लहरों की हिलोरें उठ रही थीं। वे भावनाएँ जो अब तक शान्त थीं, जाग पड़ी। हृदय सुख-स्वप्न देखने लगा। सतीकुण्ड के कमल तिलिस्म की परियाँ बन-बनकर मँडराते हुए भौरों से कर जोड़ सजल-नयन हो, कहते थे --

कर गये थोड़े दिन की प्रीति।

सुर्ख और हरी पत्तियों से लदी हुई डालियाँ सिर झुकाये चहकते हुए पक्षियों से रो-रोकर कहती थीं --

कर गये थोड़े दिन की प्रीति ।

और राजकुमारी प्रभा का हृदय भी सितार की मस्तानी तान के साथ गूँजता था --

कर गये थोड़े दिन की प्रीति।