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पृष्ठ:नव-निधि.djvu/८६

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धोखा

प्रभा बधौली के राव देवीचन्द की एकलौती कन्या थी राव पुराने विचारों के रईस थे। कृष्ण की उपासना में लवलीन रहते थे, इसलिए इनके दरबार में दूर-दूर के कलावन्त और गवैये आया करते और इनाम-एकराम पाते थे। राव साहब को गाने से प्रेम था, वे स्वयं भी इस विद्या में निपुण थे। यद्यपि अब वृद्धावस्था के कारण यह शक्ति निःशेष हो चली थी, पर फिर भी इस विद्या के गूढ़ तत्वों के पूर्ण जानकार थे। प्रभा बाल्य-काल से ही इनकी सोहबतों में बैठने लगी। कुछ तो पूर्व जन्म का संस्कार और कुछ रात-दिन गाने की ही चर्चाओं ने उसे भी इस फन में अनुरक्त कर दिया था। इस समय उसके सौंदर्य की खूब चर्चा थी। रावसाहब ने नौगढ़ के नवयुवक और सुशील राजा हरिश्चन्द्र से उसकी शादी तजवीज की थी। उभय पक्ष में तैयारियाँ हो रही थीं। राजा हरिश्चन्द्र मेयो कालिज अजमेर के विद्यार्थी और नई रोशनी के भक्त थे। उनकी आकांक्षा थी कि उन्हें एक बार राजकुमारी प्रभा से साक्षात्कार होने और प्रेमालाप करने का अवसर दिया जाये। किन्तु रावसाहब इस प्रथा को दूषित समझते थे।

प्रभा राजा हरिश्चन्द्र के नवीन विचारों की चर्चा सुनकर इस संबंध से बहुत सन्तुष्ट न थी। पर जब से उसने इस प्रेममय युवा योगी का गाना सुना था, तब से तो वह उसी के ध्यान में डूबी रहती। उमा उसकी सहेली थी। इन दोनों के बीच कोई परदा न था, परन्तु इस भेद को प्रभा ने उससे भी गुप्त रखा। उमा उसके स्वभाव से परिचित थी, ताड़ गई। परन्तु उसने उपदेश करके इस अग्नि को भड़काना उचित न समझा। उसने सोचा कि थोड़े दिनों में यह अग्नि आप-से-आप शान्त हो जायगी। ऐसी लालसाओं का अंत प्रायः इसी तरह हो जाया करता है। किन्तु उसका अनुमान ग़लत सिद्ध हुआ। योगी की वह मोहिनी मूर्ति कभी प्रभा की आँखों से न उतरती, उसका मधुर राग प्रतिक्षण उसके कानों में गूंजा करता। उसी कुण्ड के किनारे वह सिर झुकाये सारे दिन बैठी रहती। कल्पना में वही मधुर हृदयग्राही राग सुनती और वही योगी की मनोहारिणी मूर्ति देखती। कभी-कभी उसे ऐसा भास होता कि बाहर से यह आवाज़ आ रही है। वह चौंक पड़ती और तृष्णा से प्रेरित होकर वाटिका की चहार-दीवार तक जाती