पृष्ठ:नव-निधि.djvu/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
८१
धोखा

शादी बड़ी धूमधाम से हुई। रावसाहब ने प्रभा को गले लगाकर विदा किया। प्रभा बहुत रोई। उमा को वह किसी तरह छोड़ती न थी। नौगढ़ एक बड़ी रियासत थी और राजा हरिश्चन्द्र के सुप्रबन्ध से उन्नति पर थी। प्रभा की सेवा के लिए दासियों की एक पूरी फ़ौज थी। उसके रहने के लिए वह आनन्द-भवन सजाया गया था जिसके बनाने में शिल्प-विशारदों ने अपूर्व कौशल का परिचय दिया था। शृंगार-चतुराओं ने दुलहिन को खूब सँवारा। रसीले राजासाहब अधरामृत के लिए विह्वल हो रहे थे। अन्तःपुर में गये। प्रभा ने हाथ जोड़कर, शिर झुकाकर; उनका अभिवादन किया। उसकी आँखो से आँसू की नदी बह रही थी। पति ने प्रेम के मद में मत्त होकर घूँघट हटा दिया। दीपक था, पर बुझा हुआ। फूल था, पर मुरझाया हुआ।

दूसरे दिन से राजासाहब की यह दशा हुई कि भौरे की तरह प्रतिक्षण इस फूल पर मँडराया करते। न राज पाट की चिन्ता थी, न सैर और शिकार की परवा। प्रभा की वाणी रसीली राग थी, उसकी चितवन सुख का सागर, और उसका मुख चन्द्र आमोद का सुहावना कुंज। बस, प्रेम मद में राजासाहब बिलकुल मतवाले हो गये थे, उन्हें क्या मालूम था कि दूध में मक्खी है।

यह असम्भव था कि राजासाहब के हृदय-हारी और सरस व्यवहार का जिसमें सच्चा अनुराग भरा हुआ था, प्रभा पर कोई प्रभाव न पड़ता। प्रेम का प्रकाश अँधेरे हृदय को भी चमका देता है। प्रभा मन में बहुत लज्जित होती। वह अपने को इस निर्मल और विशुद्ध प्रेम के योग्य न पाती थी, इस पवित्र प्रेम के बदले में उसे अपने कृत्रिम, रँगे हुए भाव प्रकट करते हुए मानसिक कष्ट होता था। जब तक कि राजासाहब उसके साथ रहते, वह उनके गले में लता की भांति लिपटी हुई घंटों प्रेम की बातें किया करती। वह उनके साथ सुमन- वाटिका में चुहल करती, उनके लिए फूलों के हार गूँथती और उनके गले में हाथ डालकर कहती-प्यारे, देखना ये फूल मुरझा न जायें, इन्हें सदा ताज़ा रखना। वह चाँदनी रात में उनके साथ नाव पर बैठकर झील की सैर करती, और उन्हें प्रेम का राग सुनाती। यदि उन्हें बाहर से आने में जरा भी देर हो जाती, तो वह मीठा-मीठा उलाहना देती, उन्हें निर्दय तथा निष्ठुर कहती।