कुछ पहले तक बंगाल में कागज पर बने मानचित्रों की तरह लपेटे पौराणिक चित्र दिखाए जाते थे। इस प्रदर्शन को 'पट नाचानो' कहा जाता था और प्रदर्शक 'पटुमा' या 'पटिदार' कहे जाते थे। इसके अंत में भी यमराज-सभा का दृश्य रहता था। उक्त प्रदर्शक साधु ही होते थे।
नीलकंठ जी को टोका ऊपर उद्धृत की जा चुकी है। उससे यह ध्वनि निकलती है कि छाया नाटकों का प्रचार दक्षिण भारत में हो था, उत्तर भारत में नहीं। पर किसी न किसी रूप में यह परंपरा उत्तर भारत में भी अवश्य चलती थी। 'कठपुतलो' का नाच क्या है, छाया नाटक की हो परंपरा तो! 'कठपुतलो' का नाच दिखलानेवाले में 'सूत्रधारता' और 'चर्या प्रदर्शनकारिता' भी संनिविष्ट है।
यह नहीं कहा जा सकता कि छाया नाटकों में परदे के पीछे से पात्रों का वक्तव्य भी नाटकीय ढंग से कहा जाता था अथवा नहीं। यदि कहा जाता रहा हो तो उस छाया नाटक की तुलना बहुत अंशों में माधु. निक 'टाकी' या 'सवाक् चित्रपट' से हो सकती है।