पृष्ठ:नागरी प्रचारिणी पत्रिका.djvu/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१६३
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की पश्चिमोत्तरी विजय-यात्रा

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की पश्चिमोत्तरी विजय-पामा १६६ प्रहण करने में पर्याप्त सहायता की थी। पोरस की हत्या के बाद अब पर्वतीयों की शक्ति का हास हो गया था तब ये फिर गण शासन के अधीन हो गए थे। लौटते समय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का इनके साथ घोर युबामा, जिसके परिणाम स्वरूप इस गण का अस्तित्व सदा के खिये लुप्त हो गया। यह गुप्त-सम्राट की अंतिम गण हत्या थी। इस प्रकार पश्चिमोचरी संकट को दूरकर और मध्य एशिया को भारतीयों के नाम से मातंकित कर गुप्त-सेनाएँ भारतवर्ष वापस आई। इल विजय-यात्रा से गुप्त-साम्राज्य में कोई प्रादेशिक वृद्धि नहीं हुई लेकिन पंजाब और पश्चिमोत्तर प्रांत पूर्णतः उनके अधीन हो गए और शक- संकट सदा के लिये लुप्त हो गया। चंद्रगुप्त मौर्य का नाम 'शकारि' पड़ गया। कुछ विद्वानों का विचार है कि काठियावाड़ के क्षत्रपों की पराजय के कारण चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का नाम शकारि हुआ। संभव है यह विचार ठीक हो। परंतु हृतप्राय क्षत्रपों को हराना कोई बड़ी बात नहीं थी। केवल इतने के लिये बड़ी पदवी धारण कर लेना उपहासास्पद ही है। 'शकारि' नाम का वास्तविक उद्गम यह पश्चिमोत्तरी विजय-यात्रा थी, जिसने भारतीय गौरव में चार चाँद लगा दिए | यह नाम इतना प्रसिद्ध हो गया कि कोशकार इसे अपनी रचनाओं में स्थान देने लगे। 'अमरकोश' पर टीका करते हुए क्षीरस्वामी ने लिखा है- विक्रमादित्या साहसका शकातकः। -श्री हरिश्चंद्र सेठ कृत भान दि भाइडेंटिफिकेशम भाव पर्वतक ऐंड पोरस, इंडियन हिस्टारिकल स्वार्टरखी, जून १९४१, पृष्ठ १३७ । २-तत्र बन्यं वोर्पोरं पर्वतीयैर्गणरमत् । मारारोपणीयाश्मनिम्पेयोस्पतितानम् ॥ ७७ ॥-रघुवंश, सर्प ४ ।