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नागरीप्रचारिणी पत्रिका


खबर सबसे पहले भोत किसानों ने ही रामदेव को दी।[१] रामदेव ने इस आक्रमण का सामना कैसे किया, इसका कोई धमणं इस कथाओं में नहीं है। 'छिताई वार्ता' का संक्षेप देखने से तो यही धारणा होती है कि रामदेव ने कोई युद्ध नहीं किया, डरकर चुपचाप संधि कर ली। यह इतिहास के सर्वथा विपरीत है। उसके वर्णन में एक विलक्षणता यह दिखाई देती है कि उस समय तक अलाउद्दीन दिल्ली का बादशाह हो चुका था। उसमें लिखा है कि विषम स्थिति देखकर रामदेव मे वही निश्चय किया कि शीघ्र से शीघ्र सुलतान के पास दिल्ली पहुँच जाऊँ। वह निसुरत खाँ के अधीनस्थ समुद्र-तट के राजाओं से मिलकर चटपट दिल्ली पहुँचा और उलु खाँ की मार्फत सुलतान अलाउद्दीन को लाख टंका ('संक्षेप में रुपए लिखा है) भेंटकर संधि कर की। इतिहास के अनुसार न तो तब तक अलाउद्दीन दिल्ली का बादशाह ही हुआ था और न रामदेव ही उसके दरबार में दिल्ली गया था। यदि कथाकार के वर्णन को इतिहास में उल्लिखित अलाउद्दीन के देवगिरि पर हुए दूसरे आक्रमण के विवरण से मिलाए तो कुछ सगति अवश्य बैठती है। क्योंकि अलाउद्दीन दूसरे आक्रमण दिल्ली-सम्राट भी हो चुका था और इसी के बाद रामदेव भी दिल्ली गया था। एक लाख टन के बाद भी दूसरे युद्ध से ही संबद्ध है। कथा में रामदेव की ओर से एक लाख टंके की भेंट की बात कही गई है और इतिहास में अलाउद्दीन की भोर से। [२] कथाकार अलाउद्दीन के यहाँ रामदेव के जिस समान की चर्चा करते हैं वह इतिहास के अनुसार दूसरे आक्रमण के बाद ही हुआ था।

कथाकार ने रामदेव के संधि करने को तुरत प्रस्तुत हो जाने के लिये यह तर्क दिया है कि यदि निसुरत खाँ हार गया तो उसकी सहायता के लिये दिल्ली से अलाउद्दीन आ पहुँचेगा और सर्वनाश हुए बिना न रहेगा। इसे यदि पारसनीस के इस कथन से मिलाएं कि देवगिरि पहुँच कर अलाउद्दीन ने यह प्रचारित किया कि मेरी सहायता के लिये दिल्ली से सेना आ रही है जिसका आतंक मराठों पर छा गया,[३] तो दोनों में कुछ साम्य अवश्य दिखाई देता है।


  1. वही, पृष्ठ ४॥
  2. जियाउद्दीन बरानीकृत तरीखे-फीरोजशाही, पृष्ठ २००।
  3. किंकेड और पारसनीसकृत ए हिस्ट्री आव मराठा पीपुल, प्रथम भाग,अध्याय, पुष्ठ ४.।