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नागरीप्रचारिणी पत्रिका

१६६ नागरीमचारिणी पत्रिका (मूंग की दाल अथवा उसका पानी।) संक्षेप में 'कुसण' का अर्थ व्यंजन अथवा मुद्ग (मूंग की दाल) प्रादि अन्न है। इसी 'बृहत्कल्पसूत्र' के पाँचवे भाग में 'नेहागाढं कुसणं' का प्रयोग हुआ है। यहाँ 'नेहागाई' से अभिप्राय 'स्नेहावगा' अर्थात् 'ची आदि चिकने पदार्थ से युक्त है। यदि उपयुक अर्थ स्वीकार कर लिए आय तो स्वभावतः 'नेहावगाढं' विशेषण अन्यथासिद्ध हो जायगा। अतएष इस अप्रचलित शब्द का अर्थ 'बृहत्कल्पसूत्र के अनुसार व्यंजन अथवा मुद्गादि अन्न हो प्रतीत होता है इस अर्थ की पुष्टि 'मावश्यकचूर्णि', 'उत्तराध्ययनसूत्र, (नेमिचंद्राचार्य तथा त्याचार्य कृत टीका) में पाए ताहे सो ताओ एकेकाो खंडं देति कूरस्स कुसणस्स बत्थरस' पद से होती है। एक श्रावक साधु को कूर (भात), कुसण ( व्यंजन अथवा मुद्गादि अन्न ) और वस्त्र का एक एक टुकड़ा देता है। शांत्याचार्य कृत टीका में छायाकार ने 'कुसण' का अर्थ ही 'सूप' दिया है। यदि यहाँ उपयुक्त विद्वानों द्वारा किया गया 'सुवर्ण' आदि अर्थ लें तो 'श्रावश्यकचूर्णि' श्रादि ग्रंथों से उद्धत पद का अर्थ ठीक इसलिये नहीं बैठेगा कि जैन साधु 'सुवर्ण' आदि का ग्रहण नहीं करते। अतः 'कुसण' का अर्थ वही उपयुक्त प्रतीत होता है जिसकी ओर हमने निर्देश किया है। कोशों से भी हमारे इस अर्थ की पुष्टि होती है। 'अभिधानगजंद्र' के तीसरे भाग में 'बृहत्कल्पसूत्र' के उपयुक्त अर्थ को ही उद्धृत किया गया है। 'पाइअसहमहराणवो' में भी 'कुसण' के अर्थ 'तीमन' (व्यंजन) और 'माई करना' दिए हैं। अतएव उषवदात के उपरिनिर्दिष्ट अभिलेख में यदि 'कुसण' का अर्थ व्यंजन अथवा मुद्गादि अन्न किया जाय तो 'कुसणमूल' के अर्थ की संगति बैठ जायगी तथा 'कुसणमूलं' का 'कुसणमूल्यं' अर्थात् 'कुसण का मूल्य' अर्थ होगा। तब ऊपर उधत पदों का अर्थ इस प्रकार होगा- (१) और उसने अक्षयनिवि तीन हजार, कार्षापण, ३०००, संघ चातु- विश को दिए जो इस लेण में रहनेवालों का चिवरिक ( कपड़े का मूल्य) और कुसणमूल (मुद्गादि अन्न का मूल्य ) होगा। (२) उनसे मेरी लेण में रहनेवाले बोस भिक्खुओं में से प्रत्येक को बारह चीवर, जो एक हजार पौन प्रतिशत पर प्रयुक्त है उनसे कुसण ( मुद्गादि भन्न ) का मूल्य ।