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चिताई-चरित

रहते हुए उसने तलकुंकण ग्राम की रक्षा की।[१] महामहोपाध्याय पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने लिखा है कि कन्नौज के जयचंद्र के पुत्र सीहा का लड़का आस्थान दक्षिण चला गया और बहुत से देश जीतकर अपने अधीन कर लिए।[२] आस्थान और यशस्वान् एक ही जान पड़ते हैं।

पर कथाकारों ने सौंरसी या सुरसी को रामदेव का दामाद कहा है और इसे द्वारसमुद्र के राजा भगवान नारायण[३] का पुत्र बताया है। इतिहास को भगवान नारायण नाम या उपाधि के किसी राजा का पता नहीं। उसके अनुसार रामदेव के समय (संवत् १३२८-१३६५ वि०) द्वार समुद्र में द्वितीय वीर नरसिंह तथा उसके बाद उसका पुत्र वीर बल्लाल या तृतीय बल्लाल (सं० १३४८-१३८. वि०) राज्य करता था। द्वितीय वीर नरसिंह के पिता सोमेश्वर से रामदेव के पिता कृष्ण का युद्ध हुआ था। तात्पर्य यह कि देवगिरि और द्वारसमुद्र के यादवों में कभी हार्दिक मैत्री नहीं थी।[४] दूसरे, अलाउद्दीन ने अब द्वारसमुद्र पर आक्रमण किया था तब रामदेव ने अलाउद्दीन की सहायता की थी। यदि रामदेव की कन्या द्वारसमुद्र में ब्याही ही होती तो वह ऐसा न करता। कथा ने बताया है कि दिल्ली से देवगिरि लौटते सौरसी चंद्रनाथ के आश्रम में रुका। उसे विदा करते हुए चंद्रनाथ ने यह आशीर्वाद दिया कि तेरा पुत्र 'रावल' नाम से प्रसिद्ध होगा जिससे तेरा वंश चलेगा। रावल नाम का भी द्वारसमुद्र में कोई राजा नहीं हुआ और न यह किसी को उपाधि हो रही।

मेवाड़ के राजवंशवाले पहले अपने को रावल लिखते थे। उस राजवंश के तेतीसवें राजा रणसिंह या करणसिह को दो शाखाएँ चली–– (१) रावल और (२) राणा। रावल शाखा में आगे चलकर इकतालीसवें और बयालीसवें राजा रावल समरसिंह और रावल रत्नसिंह हुए जिन्होंने अलाउद्दीन से युद्ध किए। समरसिंह ने संवत् १३५६ वि० में अलाउद्दीन के भाई उलुग खाँ को मेवाड़ पर चढ़ाई करने के समय हराया था।[५]


  1. १—श्रीसोहडाग्रप्रभवो यशस्वान्स रामदेवस्य सुतां विवाह्य। दुराक्रमे देवगिरौ निषण्णा जुगोप पल्ली तलकुङ्कणाख्याम् ॥१०) तृतीय सर्ग।
  2. २—ओझा जी दॄरा संपादित टाडाकृत राजस्थान (द्वितीय संस्करण) प्रथम खंड, सात प्रकरण का टिप्पण, पृष्ठ ३४६ ।
  3. ३—पता लगा है कि भगवान नारायण द्वारसमुद्र का राजदूत था जिसे मलिक काफूर से संधि करने के लिये भेजा गया था।
  4. ४—रशीदुद्दीनकृत जामिउत्-तवारीख, पृष्ठ ७२-७३ ।
  5. ५—टाडकृत राजस्थान का पूर्वोक्त संस्करण, पृष्ठ २.५। .