राबल रलसिंह की ही रानी पद्मावती के लिये अलाउद्दीन में चित्तौड़ पर चढ़ाई की थी। समरसिंह और रत्नसिंह दोनों ही रामदेव के समकालीन थे। रामदेव का शासन काल संवत् १३०८ से १३६४ वि.है और समरसिंह तथा रत्नसिंह का क्रमशः सवत् १३३०-१२ वि तथा संवत् १३६० वि० है। किंतु इतिहास मेवाड़ के राजवंश से यादवों के संबंध की बात पर मौन है।
इतिहास के अनुसार द्वारसमुद्र और मेवाड़ दोनों में से किसी राजघराने का संबंध देवगिरि से नहीं था। सो स्थिति में दो ही बात हो सकती हैं। कथाकरों ने या तो भ्रम से द्वारसमुद्र के राजाओं को यारय होने के नाते देवगिरि से संबद्ध कह दिया और प्रसिद्ध रावल समरसिंह (समरसी, सेंबरसी, सौग्सो)को यहाँ का राजकुमार मान लिया; या सौरसी कोई और व्यक्ति हो जिसका इतिहास को पता नहीं। सौरमी के कुल और स्थान के विषय में सदेह का कारण पक और है। जब सौंरसी देवगिरि के किले से सैन्य सघटनाथ जाने लगा तय अलाउद्दीन को उसके रणथंमौड़ जाने का संदेह हुआ; पर उसने राघव चेतनादि सेनाध्यक्षों से विचार-विमर्श करते समय उसके द्वारसमुद्र जाने की बात कही। अलाउद्दीन का भ्रम दिखाने के लिये ? या इसे ही भ्रांति है ?
जोधपुर के राठौड़ भी अपने को महारावल लिखते हैं। ओझा जी ने लिखा है कि दक्षिा के राठौड़ो के कितने पक ताम्रपत्रों में इनका यादष- वंशी होना लिखा है, और ऐसा हो हलायुध पंडित अपनी कविरहस्य'नामक पुस्तक में लिखता है।' तब तो देवगिरि के यादव राजा रामदेव की कन्या का सबंध यशस्वान् गौड़ से संभव है, जैसा 'राष्ट्रौढ़वंश महाकाव्य' बतलाता है। प्रास्थान या यशस्वान् के भाई सीहा के वंशजों के पास जैसे जोधपुर, बीकानेर, ईडर, रतलाम आदि रियासते हैं वैसे ही भास्थान या यशस्वान् के वशजों का भी कोई ठौर-ठिकाना होना चाहिए। रुद्र कषि ने मयूरगिरि रियासत इसी क वंशजों को बतलाई है।
इतिहालोक्क हरपालदेव का तिवारी से विवाह संभाव्यता हैं क्योंकि
रामदेव के बाद इसी ने दामाद होने के नाते अपने को देवगिरि का स्वामी घोषित किया। इतिहास इसके कुल और स्थान का कोई उल्लेख नहीं करता। द्वारसमुद्र में हरपालदेव नाम का कोई राजा नहीं हुआ। कन्नौज
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१---ओझा जी द्वारा संपादित यष्कृत राजस्थान, पृष्ठ २३४ ।