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नाट्यसम्भव।


दमनक। (चारों ओर आंखें फाड़ फाड़ कर देखता हुआ आपही आप) अहा! गुरूजी की कृपासे वह तमाशा देखा कि जिसका नाम! जो भाग गए होते तो यह आनन्द सपने में तो क्या, मर कर इस वर्ग में आने पर भी कदाचित न मिलता। अहा!

नाटक! नाटक!! नाटक!! नाटक!!!
सुख का हाटक, रस का फाटक!!!
नाटक में है, कैसा मजा।
जैसे घी का लड्डू मीठा॥

(लाठी पर ताल देकर गुनगुनाता हुआ)

 धिन्ता, धिनान्ता, ताधिन्, धिना।
और नहीं कुछ नाटक बिना॥
धिनक् धिनक्, तक, धिन्, ताक, ताक।
नाटक बिना है, सब रस खाक॥
ताधिनाधिन्, ताधिनाधिन्, ता।
नाटक का रस पेट भर खा॥
धिन्धिना, धिन्धिना, धिन्धिना, ना।
मजा कहां है, नाटक बिना॥

(सब उसकी अङ्गभङ्गी को देख मुस्कुराते हैं)

इन्द्र। अरे, दमनक! जरा, तू तो कुछ गा!

भरत। वह उजड्ड बालक है, कुछ चपलता न कर बैठे।

इन्द्र। इस समय इसकी सब चपलता क्षमाई है।