का रूप धरा, रैवतक और दमनक नमुचि और वज्रदंष्ट्र बने और जिस भांति नारदजी ने बलि के पास जाकर इन्द्राणी का उद्धार किया था, वही रुपक ज्यों का त्यों तुम्हें दिखलाया गया।
इन्द्र। ओहो! इनमें इतना आनंद आया! तभी! अस्तु अब सब बात समझ में आगई। किन्तु हां यह तो बतलाइए कि दैत्यनारियां कौन बनी थीं?
भरत। स्वर्ग की अप्सराएं। अस्तु अब यह बतलाओ कि और क्या कर हम तुम्हें प्रसन्न करें?
इन्द्र। मुनिवर! इससे बढ़कर हमारी प्रसन्नता और किससे होगी? तथापि यदि आप प्रसन्न और अनुकूल हैं तो दया कर यह वरदान दीजिए-
असत काव्य का छोड़ि, सबै कवितारस पागैं।
त्यागि भांड़ के खेल, रागरागिनि अनुरागैं॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, दुरजन सब भागैं।
मिलैं परस्पर सहित हेत सब जन हित लागें॥
काव्य कला रत होहिं जग, तिमिर मानसिक मेटि जन।
सदा सरस पीयूष रस करैं पान लहि मानधन॥
और श्री
नसै फूट, सब जन निजत्व को अब पहिचानै।
त्यागि मूढ़ता, मोह, छोह सबहीं करि जाने॥