पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/१०६

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नाट्यसम्भव।

विद्या, विनय, विवेक, बुद्धि, वल, वैभव, आनै।
पराधीनता मेटि, होहिं स्वाधीन सयानै॥
करि उन्नति, अवनति परिहरैं, कुसल बनिज व्यापार में।
निज नाम उजागर करहिं जन, हिलि मिलि सब संसार में।

भरत। ईश्वरानुग्रह ने ऐसाही होगा। और यदि सांसारिक जन नाटक विद्या पर पूर्ण श्रद्धा करके इसमें कुशल होंगे तो उन्हें सभी अभिलषित पदार्थ अनायास प्राप्त होंगे। क्योंकि नाटक की महिमाही ऐसी है। देखो:-

जैसी सुख सरिता बहै, नाटक माहिं सुजान।
वैसी सुखद, न वस्तु है, तीन लोक में आन॥

नारद। सत्य है। और हम भी नाटकप्रेमियों को कुछ वरदान देते हैं। वह यह कि "परस्पर विरोध रखनेवाली लक्ष्मी और सरस्वती, जिनका एकत्र अवस्थान अत्यन्त दुर्लभ है, नाटकप्रेमियों पर अनुग्रह करके परस्पर का वैमनस्य त्याग, सम्मिलित होकर उनके घर में निवास करें।

सब। देवर्षि के वचन अवश्य सत्य होंगे।

(धीरे धीरे परदा गिरता है)

इति

नाट्य सम्भव रूपक समाप्त हुआ।