पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६
नाट्यसम्भव।


परन्तु इस यात को तुम अपने मन में निश्चय नममा कि उस सतीशिरोमणि शची देवी के अमल और कोमल शरीर में कोई उंगली भी नहीं लगा सकता। इसलिये धीरज धरकर अमुरी के संहार करने का उपाय करो। सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की अनन्त दया से शीघ्रही तुम असुरों का नाश कर अपनी प्रणयिनी को पाओगे।

इन्द्र। आपका उपदेश बहुतही मधुर और हितकारी है और हम भी अपने मन की बहुत समझाते हैं, पर यह अमाना मन जब मचलता है, तब किसी तरह मानताही नहीं। हा!

चौपाई।
बहै सहस लोचन सों नीर।
मन चंचल नहिं धरै सुधीर॥
पिरह ज्वाल जारैमम देह।
अहो! सची विन सुनो गेह॥

(लम्बी सांस लेता है)

भरत। धीरज धरो, देवेन्द्र! धीरज धरो! अपने चंचल चित्त को शांत करो। सुनो-

दोहा।
परम दयासागर सदा, सांत सच्चिदानन्द।
करि है कृपा कटांच्छसों, मेटि सबै दुख दन्द ॥