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नाट्यसम्भव।

इन्द्र। बिकल प्रान अकुलान लगे इत राखि सकै किमि कोऊ।
भरत। मिटिहैं सब सन्ताप बेगि, बहु भांतिन सों सुख होऊ॥
इन्द्र। मिलै न मांगी मौत भए दुख विधि कृत मेटै को जग।
भरत। याहीसों बुध बिपति परे, गहि चलैं सुगन धीरज मग॥
इन्द्र। दोहा।

प्रियाविरह व्याकुल अतिहि, मैं इत भयो बिहाल।
पै उत मेरे विरह में, वाको कौन हवाल!!

भरत। दोहा।
सती नारि के तेज सों, दुर्ज्जन दुष्ट-पतंग।
जरि जरि मरै, न करि सकै छलबल भरित उमंग॥
सती नामतें ह्वै रह्यो, दीपित भुवन अनन्त।
कौन ताहि दुख दै सकै, मूढ़ नारकी जन्त॥

इन्द्र। मुनिवर! आपका कहना बहुतही सत्य और उपयोगी है, पर क्या करें; जब उस माधुरी मूर्ति का ध्यान करते हैं, तभी मन मचलने, हृदय फटने और प्राण तड़फने लगते हैं।

भरत। ऐं इन्द्र! जो तुम इतने बड़े वर्ग के स्वामी होकर ऐसे ब्याकुल होगे तो साधारण प्राणियों की क्या गति होगी? यद्यपि सुरलोक की श्री (शची) को हरण करके दुष्ट दैत्यों ने इस लोक को उजाड़सा कर डाला है, पर किया क्या जाय? जबतक सुख दुख की अवधि रहती है, तबतक उसे भोगनाही पड़ता है।