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नाट्यसम्भव।


दुःख को धैर्य्य से और अज्ञानी जीव रोकर काटते हैं। देखो संसार में सबकी सदा एकसी नहीं निभती। सदा सब कोई एकही पलरे पर नहीं तुलता। इसलिए जो विपत्ति में धीरज घरते हैं, वही सच्चे महा पुरुष हैं।

इन्द्र। (शांत होकर) आपके हितोपदेश ने हमारे हृदय की चोट पर औषधि कासा काम किया।

भरत। अच्छा! अव हमारे संध्यावन्दन का समय हुआ, इसलिए हम आश्रम को जाते हैं। तुम घबराहट छोड़ कर अपने मन को सम्हालो। हम फिर आवैंगे। (उठते हैं)

इन्द्र। (उठकर) इस तापदग्ध इन्द्र के मानसिक रोग की औषधि शीघ्रही कीजिएगा। भूल न जाइयेगा।

भरत। यह क्या! तुम बालकों कीसी बातें करते है! भला हम तुम्हें भूल जायंगे! और ऐसे समय में! धीरज धरो।

इन्द्र। जो आज्ञा (प्रणाम करता है)

भरत। शीघ्र मनोकामना पूरी हो।

(दोनो दो ओर से जाते हैं)
परदा गिरता है।
इति दूसरा दृश्य।