सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६
नाट्यसम्भव।


बुरा किया। और जो जोड छीन लेगये उनसे यह श्री पलने वाला कोई नहीं है कि तुम्हारे मह में कै दांत हैं। ठीक है "टेढ़ जान शङ्का सब काहू, वक्र चन्द्रमा ग्रमैं न राहू" और इन रेवतवा का रङ्गता देखा! हमारे पर रोव जमाकर अपना बड़प्पन दिखलाता है। (डरकर) ओ बाबा! जो कोई शाप ताप देदेता तो क्या होता? ऐं! अब यहां रहना अपने प्राण गँवाना है।

रैवतक। (हँसकर) क्या सोच रहे हो दमनक!

दमनक। अपना सिर!!!

(नेपथ्य में)
कवित्त।
आयु बल वुद्धिधन जन नित नित छीजै-
क्रो ध लाभ मद माह काम नेक दहुरे।
छोडि भ्रमजाल या कराल काल जानिढिग-
राधिका गुपाल के चरन दाऊ गहुरे ॥
चारिहू पदारथ में आदि अन्त धारि उर-
गुरु उपदेस मान ज्ञान ध्यान लहुरे॥
त्यागि के लुजान जग चीता के समान यह-
चीता सोई चीता अब सीताराम कहुरे॥
(दोनो कान लगाकर सुनते हैं)