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नाट्यसम्भव।


स्वर्ग की सुन्दरी हैं। इन्हीं के प्राप्त करने के लिए लोग असंख्य रुपये खर्च कर बड़े २ यज्ञ यागादिक किया करते हैं। आज गुरूजी की कृपा से हमारे ऐसे अभागे के भीनेत्र सफल हुए। अहाहा! कैसी अपूर्व छटा है?

कवित्त।
जोड़ा जरीदार कसी कंचुकी करार, घेर-
दार घूंघुराले सोभासहज अपार हैं।
भृकुटी कमान दृग बान मुखपान सोहै-
अङ्ग अङ्ग भूखन अदूखन बहार हैं॥
गोरी मतिभोरी जैसे अमी की कटोरी, झूमैं-
अलकैं अमोल लोल लोचन उदार हैं।
आवत अनन्द सों सुराङ्गना सुहागभरी-
पहरात पंख थहरात कुच भार हैं॥

(देवाङ्गनाओं के झुंड निकल जाते हैं और दमनक टकटकी बांधे खड़ा रह जाता है)

भरत। (दमनक-की ओर देखकर) अरे यह तो इतने सेही पागल होगया (उसके सिर पर हाथ रखकर) अरे। चेत चेत!! ओ दमनक!!!

दमनक। (चौंक कर) ऐं! ऐं! क्या है २ गुरूजी! क्या कहते हैं।

भरत। तेरा सिर! सिड़ी न जाने कहां का! सावधान हो

रैवतक। अरे भाई! दमनक! शांत हो जाओ! जो कहीं कोई