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पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/४५

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नाट्यसम्भव।


(१) धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष, यह चारि पदारथ।
सरस काव्य को सेवन करि जन होत कृतारथ॥
अखिल कला रत होड़ प्रीति श्री कीरति पावै।
सुखसागर अवगाहि मानसिक माद बढ़ावै॥

भरत। हाँ तुझे स्मरण है भूला नहीं। और सुन-

(२) अर्थ धर्म अरु कामना, मोक्ष पदारथ चार।
लहै अल्पमति मनुज हु, काव्याहि तें*[] निरधार॥

दमनक। और हमें भी याद है, गुरुजी!

भरत। हां हां तू भी सुनादे।

दमनक। (मृदङ्ग पर थाप लगाकर गाता है)

(३) राग रागिनी जाति ताल सुरभेद हियेगहि।
चीन बजावन लत्व मुरज विधि भलीभांति लहि।
काव्य कलाअनुरागि पागि मुद महापुरूप नर।
शब्दरूप केशव समान सो मुक्ति लहै कर॥


(१) धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचतण्यं कलासु च।
करोति कीर्तिं प्रीतिं च साधुकाव्यनिषेधणम्॥

(विष्णुपुराणे)

(२) चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि।
काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निगद्यते॥

(साहित्यदर्पण)

  1. * लोकोत्तराल्हादनाजनकत्वेन सचेनसां हृदयद्रवीभूतकरणसमर्थः कविः सरकर्मणि विशेषः तस्येदङ्काव्यम्। रसात्मकं वाच्यङ्काव्यम्। न नैन विना रमणीऽऽयाति, कुत आत्मत्वात्। आत्मनो राहिव्येन शववदेय नीरसवर्णनत्रकाव्यनाममाक्। (सुबन्धुः)

(३) वीणावादनतत्वतःवरजातिविशारदः।
तालमवाप्रयासेन साक्षनाग प्रयच्छति॥