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नाट्यसम्भव।

प्रतिहारी। नहीं, योंही कुछ। हां सुनिये,पाकशासन वैजयन्त प्रासाद से अकुलाकर इस सन्ध्या के सुहावने समय में कुसुम सरोवर के तीर आकर चक्रवाक मिथुन के विछोह को देख बहुतही बिकल हो रहे थे, पर आपके शिष्यों के सङ्गीत को सुनकर वे फिर सावधान हुए हैं।

भरत। परन्तु तुम्हें किसलिए देवेन्द्र ने भेजा है?

प्रतिहारी। महाराज ने आपसे निवेदन किया है कि हमारे चित्तविनोद का उपाय आप शीघ्र करिये और दर्शन दीजिये।

भरत। देवेन्द्र से हमारी ओर से समझाकर कहना कि हम बहुत जल्दी इसका उपाय करके उनसे मिलेंगे और आशा है कि उनका मनोरथ शीघ्र पूरा होगा।

प्रतिहारी। जो आज्ञा (प्रणाम करके जाता है)

रैवतक। (मन में) अहा! तपस्या का प्रभाव धन्य है कि जिस के आगे स्वर्ग के रहनेवाले देवता भी सीस नवाते हैं!

दमनक। (मन में) हमारे बड़े भाग्य हैं कि ऐसे गुरु हमें मिले कि जिनका मुँह देवता भी जोहा करते हैं।

भरत। अरे तुम दोनो थोड़े से फूल बीनकर उस ओर (अंगुली से बताकर) आकाशगङ्गा के तट पर आना। हम आगे चलते हैं।

रैवतक और दमनक। जो आज्ञा।