पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/४७

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नाट्यसम्भव।

साई पावै सवै मनोरथ जो यामें अवगाहै।
नसै अमंगल भलीभांति, छिति छाये रुचिर छटा है॥

(नेपथ्य में)

क्यों न हो, साक्षात् नङ्गीत के स्वरूप महामुनि भरताचार्य्य के बिना ऐसे अलौकिक अमृत की वर्षा कौन करेगा?

(सब सुनकर इधर उधर देखते हैं और इन्द्र का प्रतिहारी आता है)

प्रतिहारी। (प्रणाम करके) मुनिवर की जय होय।

भरत! चिरंजीवी होवो। कहो पिंगाक्ष! किधर चले।

प्रतिहारी। आपका सङ्गीत सुनकर महाराज शचीपति बड़े मोहित हुए हैं।

भरत। यह हमारे दोनो शिष्य (दमनक और रैवतक को अङ्गुली से दिखाकर) गा रहे थे। अच्छा देवेन्द्र इस समय कहां विराजे हैं?

प्रतिहारी। (मन से) ओहो ! जिनके चेले ऐसा गाते हैं कि जिसे सुनकर इन्द्र भी मोहित होगए तो फिर भरतमुनि के गाने का क्या पूछना है? सच है! इसीसे तो गन्धर्व विद्याधर आदिमभी भरत मुनि के आगे भट्टीत विद्या में सिर झुकाते हैं और अप्सराओं की तो कुछ गिनती ही नहीं।

भरत। (मुसक्याकर) ऐं तुम सोच क्या रहे हौ