पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/५१

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नाट्यसम्भव।

कृपाकटानिसों करी एतै मातु निज नेह सब।
चरन कमल उर अंतर धरौ बेगि मम गह अब॥

(और भी)

पद्मासन सुचि सेत, सेत तन हंस संवारी।
कवि हिय वामिनि मात, तात विधि वाम दुलारी॥
ह्रै सुजान गुनखानि दया इत हूं अब कीजै।
मम संकटमर्वस्व मेटि माता सुख दीजे॥
तुम्हे हेरि अब मैं जननि विनवत गुन गम्भीर गुनि।
करी पूर मनकामना मों उर अंतर हरि पुनि॥

(एकाएक आकाश में उजेला होता है और रिहि मिद्धि के संग धीरे२ सरस्वती उतरती हैं, उन्हें देख शिष्यों के सहित भरत मुनि खड़े होकर हाथ जोड़ स्तुति करते हैं)

भरत। शुद्धां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्या- पिनीं-वीणापुस्तकधारिणीमभयदांजाड्यान्ध- कारापहाम्। हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं। पद्मासने संस्थितां-वन्दे तां परमेश्वरी भवगतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।

(आकाशमार्ग से उतरकर सरस्वती पुप्पों के आसन पर बैठती हैं। भरत मुनि फल पुष्प चढ़ाकर पिर खड़े हो हाथ जोड़ स्तुति करते हैं)

ऐं ऐं ऐं जाप्यतुष्टे हिमरुचिमुकुटे वल्लकी व्यग्रहस्ते, मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि