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पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/५९

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नाट्यसम्भव।

लहै संजोग भोग बहु भांतिन कवि तेरो गुन गाई।

भरत। हे माता! देवाङ्गनाजन तुम्हारी विनती कर रही हैं।

सरस्वती। हे बेटियों! तुम्हारी मनोकामना पूरी हो।

(नेपथ्य में)

अहाहा! आन हमलोगों के भाग्य खुले।

(देवाङ्गना जय जय ध्वनि करती हुई आकाशमार्ग से फूल बरसाती हैं और रिद्धि सिद्धि के सम सरस्वती अन्तर्धान होती हैं)

भरत। (चौंक कर) ऐं देखते २ माता किधर अन्तर्धान होगईं। (दोनो चेलों को देखकर) अरे! ये दोनों आंख बन्द किये कठपुतली की शांति का बैठे हैं? (जल छिड़क कर दोनों को सावधान करते और दोनों अंगड़ाई लेकर आंख मलर इधर उधर देखते हैं)

भरत। क्या तुम दोनों सोगए रहे?

दमनक। क्या जाने गुरूजी! घुमड़ीसी आई।

रैवतक। नहीं गुरुजी! नसासा चढ़ा था।

दमनका नहीं २! चक्करसा आने लगा था।

भरत। तो क्या तुम लोगों को भगवती के दर्शन नहीं हुए?

रैवतक। अहा हा हा! कैसी तेजपुंज मूर्ति रही! अहा! अभी तक आंखों के आगे घूम रही है। पर फिर-

दमनक। फिर कुछ न जान पड़ा कि कहां क्या भया।