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नाट्यसम्भव।


द्वारपाल। महाराज की जय होय। महर्षि भरताचार्य्य का एक चेला द्वार पर खड़ा है।

इन्द्र। (सिर उठा कर सहर्ष) क्या कहा? भरताचार्य्य का चेला? तो उसे जलदी भेजो।

द्वारपाल। जो आता। (गया)

इन्द्र। अभी हम नाचही रहे थे कि भरतमुनि क्या हमें भूल गये, पर नहीं। महात्मानन स्वतावही से दयालु और परोपकारी होते हैं। वे लोग बिना किमी स्वार्थ या प्रयोजन के ही दीनों पर दया करते हैं। आच्छा, देखें अद हमारा मन क्योंकर ठिकाने आता है। हा! इन्द्राणी के वियोग ने हमारे हृदय पर ऐमी गहरी दोट लगी है कि जिसका जल्दी अच्छा होना बहुत ही कठिन दिखाई देना है।

(इन्द्र सिर झुकाये हुए कुछ नाचता है और इधर उधर देखता हुआ दमनक जाता है)

दमनक! अहा! हमारे गुरुजी का कैसा प्रताप है कि हम बिना किसी से पूछे ताछे यहां तक पहुंच गये और जिनकी कृपा से स्वर्ग की छटा देखो, उन्हींकी दया से आज इन्द्र के भी दर्शन होंगे। भला इनमें इतनी सामर्ध्य कहां थी कि इसी देह से स्वर्गलोक में आकर जहां चाहते वहां घूमा करते और कोई न टोकता! ओहो! मुनियों की सेवा करने से कैसे २ अपूर्व फल