पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/६६

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नाट्यसम्भव।

मिलते हैं। (थोड़ा आगे बढ़ और देख कर) वही तो! सामने कुसुमसरोवर के तीर स्फटिकशिला पर सिर झुकाये इन्द्र बैठे हैं। ऐं ऐं। इनके तो सारे शरीर में आँसही आँख दिखाई देती हैं। (एक-दो तीन करके गिनता हुआ) आह। दूर करो, कहां तक गिनें। सौ पचास हो तो गिनी भी जायं। यहां तो सैकड़ों की गिनती ठहरी। सुना था कि इन्द्र के हजार नेत्र हैं, जो आज आंखों देखा। पर इसके सब नयनों में आँसू की बूंदें क्यों चमक रही हैं। ऐसा सुन्दर मुख मुर्झाय क्यों गया है? (सोच कर) हां हां। अब समझे। इन्द्राणी के बिछोह ने इनकी ऐसी दशा की है। तो या प्रियतमा स्त्री का वियोग इतना दुखदायी होता है? राम! राम! ईश्वर न करै कि ह भी कभी ऐसा दुःख भोगना पड़े। अपने रान तो अब कक्षी व्याह का नाम भी न लेंगे। जो कहीं कोई असुर ससुर छीन लेगा तो हम उसका क्या कर लेंगे! जय इन्द्रही के किये कुछ नहीं होता तो हमारी कान गिननी है! और फिर जब इन्द्र इतना उदास हो रहा है तो भला हमारे मान काहे को बचेंगे? पाई। हम तो अब जाकर मृत्युलोक के राजाओं को चिताय देंगे कि अब तुम लोग इन्द्र बनने की लालसा से हाथ धो डालो, नहीं तो एक न एक दिन जोरू