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नाट्यसम्भव।

जरूर गँवानी पड़ेगी। हहहह!!! कैसा अंधेर है कि कुछ कहाही नहीं जाता। (आगे बढ़ कर) स्वर्ग की वेश्याओं के आदर करनेवाले सहस्रलोच की जय होय।

इन्द्र। (चौंक कर) अरे! तुम कौन?

दमनक। हम हैं दमनक!

इन्द्र। क्या मुनिवर ने तुम्ही को भेजा है।

दमनक। इसमें कुछ सन्देह है?

इन्द्र। नहीं नहीं सन्देह कुछ भी नहीं है।

दमनक। गुरूजी ने प्रार्थना की है कि………

इन्द्र। (जल्दी से) क्या आज्ञा की है?

दमनक। इतनी उतावली कीजियेगा तो हम सब आगा पीछा भूल जायँगे।

इन्द्र। अच्छा! धीरे २ कहो।

दमनक। धीरे बोलने का हमे अभ्यास नहीं है।

इन्द्र। (मुसकाय कर मन में) यह तो कोई विचित्र बटु दिखाई देता है। पर सीधा भी इतना है कि हमारे सामने कुछ सङ्कोच नहीं करता (प्रगट) अब जैसे तुम्हारे जी में आवै, वैसे कहो।

दमनक। अब महाराज ने हमारे मन की बात कही। तो अब आप इतने दुःख का सार क्यों सहते हैं आपके रोग की औषधि बन गई है। गुरुजी आकर शीघ्र