दी है रहा साहित्य, सो भी आधा तो चाट गये, बाकी जो बचा है, वह भी दो चार दिन में चटनी कर डालेंगे।
इन्द्र। (हँस कर) बाहरे लड़के शाबाश! क्यों न हो! तय तो चारों ओर तही तू दिखाई देगा । सला! यह तो बना कि भरतमुनि कयोंकर हमें प्रसन्न करेंगे?
दमनक । हम भी तो यही कहने के लिए आए हैं।
इन्द्र । हा हा ! उसे अन्दी मे कार पाल !
दमनका फिर वही जल्दी? तो फिर हम मय भूल जायंगे।
इन्द्र । ( मन में ) हे राम ! यह कैसा दुष्ट है? (प्रगट)। अच्छा ! अब जल्दी न करेंगे।
दमनक। आपकी जय होय, तो फिर सुनिए-
नाटक नाटक नाटक नाटक।
रूप काहाटक रस का फाटक।
तम का फाटक का छांटक।
बिरहा त्राटक आनंद चाटक॥
इन्द्र। अहा! तुझे तो मुनिवर ने एक सङ्ग यमक अनुप्रास की रासही बना दिया है। अच्छा हम भी तुझे आज 'कविरत्न' की पदवी देते हैं।
दमनक । (प्रणाम करके) महागज का भला हाय । हे देव कविरत्न तो हम थेही। जो और कुछ मिलता तो बहुत अच्छी बात होती खेर।
इन्द्र। अच्छा २ फिर देखा जायगा। हां यह तो पता कि