पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/७१

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नाट्यसम्भव।

पका डाली। अच्छा अब जाकर मुनिवर से शीघ्र आने के लिए निवेदन कर ।

दमनक । (मन में) हाय ! इतना सिर खपाने पर भी यही फल मिला! बस! हम उधर से भी गए और उन ने भी। यह सब मरने के पहिले सन्तिपात के से लच्छन हैं। हमने वैदक की पोथी में देखा है कि 'प्रतिज्ञा वागअदृस्य दौडधूपी न जीवति, तो न जाने कव कहां पर प्रान निकल जायं, इसलिये चलती बेर मार्ग में अपने लिये एक ठंढी चिता चुनते जायेंगे।

इन्द्र । क्यों रे दमनक ! तू खड़ा खड़ा क्या वड़वड़ा रहा है? ऐ ! तेरे मुख पर एकाएक उदासी कैसे छागई ?

दमनक। (झुंझला कर) केवल आपकी उदासी देखकर मेरे मुखड़े पर भी उदासी छागई।

इन्द्र। (हँस कर) क्या वही तो तेरे सिर नहीं चढ़ बैठी?

दमनक। लच्छन तो ऐसेही जान पड़ते हैं।

इन्द्र । तो अब हमने अपनी वला तेरे सिर टाल कर छुट्टी पाई।

दमनक । (घबराकर) अरे बाबारे ! मरे मरे ! हे महाराज, आप ब्रह्महत्या से भी नहीं डरते? इस गरीब दुर्बल ब्राह्मण का प्रान लेने से आपका क्या भला होगा? हमारी दशा देखकर दया करिये। किसी तरह पीछा छोड़िये। अब हम कभी यहां न आवैंगे। अपराध क्षमा