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पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/९१

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नाट्यसम्भव।

कदापि नहीं होसकता।

सबदेवता। देवर्षि के बचन सत्य हैं।

इन्द्र। ऐसे उदारहृदय शत्रु को हृदय से धन्यवाद दिए बिना नहीं रहा जाता।

सबदेवता। सत्य है, सत्य है।

(नेपथ्य में-राग मारू)

विरह की पीर सही नहिं जाय।
नैनन तें जलधार बहत है, निकरत मुख ते हाय॥
चलत उसासें प्रलयकारिनी मदन तपावत आय।
बिकल प्रान अकुलान लगे अति निकसन चहत पलाय॥

इन्द्र। हाहन्त, हाहन्त! यह तो इन्द्राणी के बोल हैं।

(घबराकर उठा चाहता है)

वृहस्पति। सावधान, सुरेश। यह नाटक है।

इन्द्र हाय! नाटक में इतनी सजीवता! हे भरताचार्य्य। तुम धन्य हौ।

(नेपथ्य में पुनः गान)
राग विरहिनी।

पिया बिनु मदन सतावत गात।
हाय, बिरहिनी ते बहुमांतिन सवै करत उत्तपात॥
मदन, वसंत, चंद्र, अरु चांदनि, सुरभि पवन सबभांति।
कोकिल बन उपवन, सर, सरिता अरुनलवककी पांति॥