हे मन! अब तू इतना उतावला ना हो; सम्भव है कि, तेरा संशय अब स्थिरता को प्राप्त होजाय।
पिंगाक्ष। देखिए, देवर्षिजी यद्यपि वनिता के वियोग में हमारे स्वामी सुरेन्द्र की मुखश्री कुछ मुर्झाईसी प्रतीत होती है, तभी बालरवि के समान तेजपुञ्ज, मुखारविन्द चित्त को कैसा प्रफुल्लित कर रहा है।
नारद। ठीक है, शतक्रतु की तेजस्विता ऐसीही है।
(नारद के आने पर सब देवता उठ खड़े होते और प्रणाम करते हैं और इन्द्र उन्हें अपने सिंहासन के दक्षिण-भागमें स्थान देता है। फिर नारद के बैठने पर सब बैठते हैं। अवगुण्ठनवती स्त्री सिंहासन के सामने नारद के समीप खड़ी होतीं है)
इन्द्र। देवर्षिवर्य! आपके आगमन से हम अत्यन्त कृतार्थ हुए।
नारद। (मन में) अवगुण्ठन का माहात्म्यही ऐसा है। (प्रगट) कहो, देवेन्द्र! प्रसन्न तो हो?
इन्द्र। आपके आने पर अप्रसन्नता कहां रह सकती है?
(कनखियों से अवगुण्ठनवती की ओर देखता है)
नारद। (मन में) वाहरे स्वार्थ! अच्छा तो अब इसे क्यों व्यर्थ भूलभुलैयां में भटकावें (प्रगट) क्यों इन्द्र इस, समय हम तुम्हारा क्या उपकार करें?
इन्द्र। इन्द्राणी के अतिरिक्त और हम कौनसी प्रियवस्तु आपसे चाहें?