नारद। तथास्तु, यह लो। (स्त्री की ओर देखकर) पुत्री पुलोमजे। अब तू अपने मुखचन्द्र को घूंघट घटा से बाहर निकाल, इन्द्र के नैनचकोरों को आनन्द दे।
(इन्द्राणी घूंघट उलट कर मुख दिखलाती है और इन्द्र आतुरता से आगे बढ़ उसे अपने भुजपाश में भर लेता है। फिर दोनों नारद के चरणों में प्रणाम करके सिंहासन पर दाहिने बाएं बैठते हैं)
नारद। इन्द्र! हम यही आशीर्वाद देते हैं कि आज से तुम दोनों में कभी वियोग न हो।
इन्द्र। इसे वरदान भी कहना चाहिये।
सब देवता। अवश्य, अवश्य।
(आकाश मार्ग से फूल बरसातीं और गाती हुईं उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा, मेनका, घृताची आदि अप्सराएं आतीं और नारद तथा इन्द्रादि देवताओं को प्रणाम करके फिर गाती और नृत्य करती हैं)
सब अप्सरा। (नाचती हुईं)
राग सूहा।
अहा! अपूरब नाटक-सुख की रासी।
सब सुख दायक, परिचायक मोह विनासी॥
सुभ पवन बहे, मंगल नव कुसुम फुलाने।
जहं प्रेमी जन के मन मधुकर भरमाने॥