नारी-समाज में आगृति हैं या नहीं, स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर है या बाहर, कन्याओं का कैसी शिक्षा देनी चाहिये आदि प्रश्न ऐसे हैं जिन्हें स्त्रियों के जिम्मे छोड़ देना चाहिये । ये उन्हीं के हिताहित की बातें हैं । स्त्रिया स्वयं इन पर विचार कर सकती हैं । मेरे विचार से पुरुष वर्ग का इसमें हस्तक्षेप अनधिकार-चची है । पुरुष सिर्फ उन्हें विचार करने और उन विचारों को व्यक्त करने योग्य बनने में सहायता दें । वे विचार में सहायक हो सकते हैं उसी प्रकार सहानुभूति के साथ; जैसे स्त्रिया उनकी समस्याओं पर अपना मत व्यक्त कर सकती हैं। सौभाग्य से इस देश को महात्मा गांधी जैसा जननायक मिल गया है जिसके प्रयत्न से इस देश का महिलावर्ग भी बहुत कुछ आगे बढ़ा है। यूरोपीय सभ्यता के दूषित कीटाणुओं से मुक्त वातावरण में सांस लेनेवाली पूतशीला महिलायें भी अब यत्र तत्र दृष्टिगोचर होने लगी हैं । इस आन्दोलन में स्त्रियों ने सम्मान के साथ अपना कर्तव्य पूरा किया है। शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में उच्च स्थान प्राप्त किया है। वर्तमान हिन्दी साहित्य के कुछ विभागों में तो स्त्रियों का अत्यन्त सम्मानित पद प्राप्त है । व्यर्थ का आडम्बर और ऊँच-नीच की भावना भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। समाज के पिछड़े तथा शोषित वर्ग की ओर भी कार्यकत्रियों का ध्यान जाने लगा है। ये सब शुभ लक्षण हैं। फिर भी आवश्यकता इस बात की है कि हमारा संगठन अखिल भारतीय आधार पर और सम्भव हो तो सार्वभौमिक आधार पर । सम्मेलनों की समाप्ति सभापति तथा अन्य कुछ वक्तृत्वकलाविशारदों के व्याख्यानों के साथ ही न हो जाय । वर्ष भर के लिये ठोस कार्यक्रम बनाने के लिये हम मिलें और इस बात पर भी विचार करें कि पिछले वर्ष हम कहाँ तक सफ़ल हुए हैं । अधिकार मिला नहीं करता, लिया जाता है । यदि हम में शक्ति है, जागृति है, अपने अधिकारों का हमें ज्ञान है तो काई हमें गुलाम बनाकर नहीं रख सकता। .
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