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नारी समस्या
 

जो लोग स्त्रियों की संकुचित दृष्टि और दुर्बल बुद्धि का सहारा लेकर स्वयं को झंझटों से पृथक रखना चाहते हैं और साथ ही उज्वल भी, उनका कोई उपचार नहीं; किन्तु जो लोग वस्तुतः स्त्रियों की दुर्बलता को अनुभव करते हैं, उन्हें क्लबों, सभा-सोसाइटियों तथा इसी प्रकार के कोरे मनोरंजनों से समय बचाकर प्रातः-सायं कुछ समय अपनी अर्धोगियों की ज्ञान-वृद्धि में भी लगाना चाहिये। परदानशीन हिंदी भाषी स्त्रियों के साथ उनकी पड़ोसिन गुजराती तथा महाराष्ट्रीय स्त्रियों की तुलना करके उनकी सादगी, उनके सौजन्य तथा गृह-कौशल आदि के आदर्श नारी-जगत के सामने रखने चाहिये। युवक यदि अवगुंठनमयी अपढ़ गुड़ियों से विवाह न करने की प्रतिज्ञा कर लें तो इन कठिनाइयों का मूलोच्छेद हो जाय। इसके लिये उन्हें केवल मानसिक बल की आवश्यकता होगी, किन्तु कुछ न कुछ साहस और बलिदान तो सर्वत्र अपेक्षित होता ही है।

आज कन्याओं के माता-पिता दहेज़ की चिन्ता के कारण कन्याओं की शिक्षा की उपेक्षा कर जाते हैं। युवकों का उक्त साहस सरलता से इस दोष को दूर कर सकता है। वैसे तो अब माता-पिता भी समझने लगे हैं कि विवाह के बाज़ार में पढ़ी लिखी लड़की की ही पूछ होती है। समाज में अच्छा वर मिल जाना ही लड़की की ओर से माता-पिता का उऋण हो जाना समझा जाता है।

सम्बन्ध करते समय जैसे पहिले वर के शिक्षण तथा स्वास्थ्य के बारे में था उसी प्रकार अब कन्याओं के विषय में भी पूछा जाने लगा है। बी.ए. या एम.ए. पास वर प्राप्त करने के लिये जिस प्रकार अधिक दहेज़ की चिन्ता करनी पड़ती थी उसी प्रकार अब प्रायः उक्त योग्यता के वर के लिये वधू का शिक्षित और सुसंस्कृत होना आवश्यक माना जाने लगा है। अब तक सम्बन्ध की बात का अंतिम निश्चय वर-वधू के माता-पिता द्वारा ही होता था। अतः धन को विशेष महत्व दिया जाता था; किंतु जब देखा गया कि बिना पढ़े लिखे सभ्य, संस्कृत वर के साथ कन्या का जीवन सुखी नहीं रहता तब वर की शिक्षा-दीक्षा पर भी ध्यान दिया जाने लगा किंतु गौण रूप में ही कन्या के सम्बन्ध में यह उतना आवश्यक नहीं समझा गया क्योंकि उसे घर निकलने वाली कर्मठ नारी नहीं, गृहलक्ष्मी बनना था! उसे कमाना न था, अतः सभ्य-समाज से उसके सम्पर्क की आवश्यकता ही क्या होती? वह तो कविवर पंत के शब्दों में:-