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नारी समस्या
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है कि वे स्वतः घूँघट पसंद नहीं करतीं। वह तो उन्हें विवशता से करना पड़ता है। निरवगुंठनता प्रकृति की पुकार है और स्वाभाविकता का सन्देश भी। हो सकता है कि स्त्रियाँ घर में संकोच, सामाजिक भय अथवा वयोवृद्धों के दबाव से परदात्याग में आनाकानी दिखायें किन्तु उस संकोच के भीतर उनकी स्वीकृति छिपी रहेगी। मानव स्वभाव प्रकाश को पसंद करता है, चमगादड़ की भाँति तमसावृत रात्रि को नहीं। वह इतना प्रकाश चाहता है कि संसार की सूक्ष्मातिसूक्ष्म वस्तु से भी अनभिज्ञ न रह सके फिर भला ऐसी कौन स्त्री होगी जो जान बूझकर मूर्ख रहना पसंद करेगी। मेरे जन्म से भी पहले समाज में महिला-उत्थान का कार्य प्रारम्भ हो गया था। उस समय हमारे समाज में स्त्रियाँ एक प्रतिशत भी पढ़ी लिखी थीं, इसमें संदेह है। पचास वर्ष पहिले कुछ अंग्रेज महिलाओं ने भारत में स्त्रीशिक्षा की आवाज उठाई थी किन्तु खेद है कि आज भी अन्य प्रान्तों के स्त्रीशिक्षण के सामने राजस्थानी महिलाओं का शिक्षण नगण्य-सा है।

मुझे अपने उस छुटपन की याद आती है जब शहर में बालिकाओं के लिये एक भी पाठशाला न थी। शायद उस समय तक पुरुषों ने इसकी आवश्यकता न समझी होगी। मेरी दादीजी जो स्वयं लिखी-पढ़ी न थीं किन्तु स्त्रीशिक्षा की समर्थक थीं। वे साधारण धार्मिक पुस्तकों का पढ़ना स्त्रियों के लिये आवश्यक समझती थीं। उन्होंने अपनी सब पुत्रियों को पढ़ाया। मुझे भी छै-सात वर्ष की अवस्था में ही एक श्रीमतीजी के पास पढ़ने भेजा जाता था। बीच-बीच में कभी कभी मैं सुन लेती थी कि पढ़ने लिखने से स्त्रियाँ विधवा हो जाती हैं। इन बातों से मेरे मन में बड़ी अशांति मच जाती थी और दिल बैठने लगता था। मेरी अध्यापिका भी विधवा थी। मैं सोचती कि कहीं वे पढ़ने ही से तो विधवा नहीं हो गयी हैं? हाँ, माताजी तथा बुआओं को देखकर एक संतोष की साँस ले लेती थी। मुझे स्मरण है, एक दिन एक पंडितजी कथा बाँचने मेरे घर आये थे। मैंने डरते डरते आखिर पूछ तो लिया कि क्या पढ़ने से स्त्रियाँ विधवा हो जाती हैं पंडितजी? मेरा लड़कपन भरा प्रश्न सुनकर उनकी मुद्रा कुछ गम्भीर हो गई और साथ ही मेरा मुँह भी कुछ उतर गया। वे बोले, 'साधारण पढ़ने लिखने और गीता आदि पुस्तकें बाँचने में तो कोई दोष नहीं है। हाँ, स्त्रियों को शास्त्र पढ़ने की मनाही है।' मालूम होता है कि स्त्रियों के दिल में शास्त्रावज्ञा से विधवा होने का डर उत्पन्न कर दिया जाता था। जब यह अवस्था थी तो किसी अंश में उस समय यदि स्त्रीशिक्षा का विरोध भी चलता रहा हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या? किन्तु स्त्रियों के हृदय में सदा विद्या एवं